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________________ 29. उत्तम ज्ञान में प्रधान व उत्तम तपस्या व चारित्र का पालन करनेवाला भी जो स्वयं की निन्दा करता है (अर्थात् जिसे यह मद नहीं है कि वह उत्कृष्ट ज्ञानी व तपस्वी है) उसके मार्दवरूपी रत्न होता है। 30. जो (व्यक्ति) कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल (कार्य) नहीं करता और कुटिल (बात) नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता, उसके आर्जव धर्म होता है। 31. जो समभाव और सन्तोष रूपी जल से प्रचण्ड लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, भोजन की आसक्ति से विहीन (होता है) उसके निर्मल शौचधर्म होता है। 32. जो भक्त प्रिय वचन बोलता हुआ परमश्रद्धा से धार्मिकजनों में अनुकूल आचरण करता है, उस भव्य के वात्सल्य (गुण) (कहा गया है)। 33. स्वाध्याय पर की वार्ता से निरपेक्ष होता है, दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ (होता है)। तत्त्व के निश्चय में कारण है और ध्यान की सिद्धि करने वाला है। 34. जो आत्मा को (इस) अपवित्र शरीर से, निश्चय से भिन्न ज्ञायकरूप स्वभाव को जानता है। वह सब शास्त्रों को जानता है। 35. जो ज्ञान स्वरूप आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता है, वह ___ आगम का पाठ करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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