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________________ पाठ - 11 सुदंसणचरिउ सन्धि - 3 3.1 (9-10) मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से गोप जब तक पुनर्जन्म में नहीं गया तब शुभमति (से युक्त) जिनमत्ति ने सूत्र से बने हुए बिछौनों पर स्वप्नों को देखा। (11-12) देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला श्रेष्ठ पर्वत, नया कल्पवृक्ष, इन्द्र का घर (स्वर्ग), उत्तम समुद्र, चमकती हुई (तथा) अत्यन्त सुशोभित अग्नि (यह स्वप्नसमूह) देखा गया। (13) प्रभात में उत्तम शुद्धमति सती शीघ्र वहाँ गई जहाँ (उसका) पति बैठा (था)। (14-15-16) उसके द्वारा रात में देखे गए (स्वप्न) (पति को) कहे गए। पति ने कहा-- हे हंस की चालवाली प्रिया! अच्छा ठीक, (हम) श्रेष्ठ जिन-चैत्यघर जाते हैं (चलते हैं) (वहाँ) पूज्य मुनि (जिनके) शब्द (ध्वनि/उपदेश) बिना विलम्ब के (सहज) (होते) हैं। स्वप्न (समूह) का हल पूर्णरूप से प्रकट कर देंगे, (अत:) (वह) रमणी, (जिसके) हार की मणियाँ लहरानेवाली थीं (पति के साथ) चल पड़ी। (17) मुनि के द्वारा यह रमणी छन्द कहा गया। ___ घत्ता - (दोनों) जिन-मन्दिर गये। (वहाँ) मुणिवर को प्रणाम करके जिनदासी के द्वारा रात्रि में स्वप्न के भीतर देखा गया। श्रेष्ठ पर्वत, कल्पवृक्ष, इन्द्र का निवास, अग्नि और समुद्र कहा गया। 3.2 __(1) (शुद्धमति ने पूछा) इस स्वप्न (-समूह के) दर्शन से क्या फल होगा? हे परमेश्वर! तुरन्त कहें। (2) इसको सुनकर नये मेघ के समान (गम्भीर) स्वरवाले मुनिवर अपभ्रंश काव्य सौरभ 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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