SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आरम्भिक (द्वितीय संस्करण) 'अपभ्रंश रचना सौरभ' का द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। इसके प्रथम संस्करण का पाठकों ने भरपूर उपयोग किया, इसके लिए हम उनके आभारी हैं। - तीर्थंकर महावीर ने धर्म-प्रचार के निमित्त तत्कालीन लोक-भाषा ‘प्राकृत' का प्रयोग किया। प्राकृत भाषा की परम्परा अपभ्रंश को प्राप्त हुई, और अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। इस तरह से राष्ट्रभाषा व लगभग सभी नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का मूलस्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है। 'अपभ्रंश ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर व्यवहार की बोली रही है।' डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन का कथन है कि अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू और पुष्पदन्त अपने समय की लोक-भाषा अपभ्रंश में नहीं लिखते तो सम्भवतः 'पृथ्वीराज रासो', 'सुरसागर', और 'रामचरितमास' का सृजन लोक-भाषाओं में सम्भव नहीं होता। डॉ. रंजनसूरिदेव लिखते हैं, 'रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास भी महाकवि स्वयंभू के काव्य-वैभव एवं भाषिकी गरिमा से पूर्णत: प्रभावित हैं।' राजा भोज के युग में (1022-1063 ई.) अपभ्रंश कवियों का राजदरबारों में सम्मानपूर्ण स्थान था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य का विकसित रूप ही हिन्दी है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- ‘साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से विचार किया जाए तो अपभ्रंश के सभी काव्यरूपों की परम्परा हिन्दी में ही सुरक्षित है।' द्विवेदी जी ने तो अपभ्रंश को हिन्दी की 'प्राणधारा' ही कहा है। हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अत: राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है। अपभ्रंश रचना सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002687
Book TitleApbhramsa Rachna Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages246
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy