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________________ १६४ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषाऽनुवादः होने बाले दोष यहां नहीं हैं। क्यों कि इस पक्ष में पदार्थ सदसद् नित्यानित्याद्यनन्तधर्मात्मक माना गया है । इसलिये आत्मा द्रव्यरूप से नित्य हैं, किन्तु पर्याय रूप से उस में सुख दुःख का भोग, पुण्यपाप की क्रिया, बन्ध मोक्ष, सभी का सम्भव है। एकान्तवाद में यह सम्भव नहीं; इसका प्रतिपादन पूर्व में हो चुका है । इसलिये निर्दुष्ट पक्ष का स्वीकार करने के कारण जिनेश्वर ही यथार्थ ज्ञानी हैं, दूसरे नहीं।) ॥ २८ ॥ मितात्मवाद ( आत्मा अनन्त नहीं, किन्तु परिमित है, इस प्रकार का सिद्धान्त ) मानने से या तो मुक्त का संसार में आगमन मानना पड़ेगा, या संसार जीवशून्य हो जायगा । क्यों कि काल अनादि अनन्त हैं, यदि आत्मा को परिमित माना जाय, तो चिरकाल में भी ज्ञान से सब जीवों की मुक्ति सम्भवित है। ऐसी स्थिति में जीव फिर से भवग्रहण करें, तभी भव रह सकेगा। ऐसी स्थिति में मुक्ति का कोई अर्थ हीं नहीं रह जायगा । क्यों कि पुनः भव का न होना ही मुक्ति है। इस प्रकार मितात्म बाद में भव का लोप या मुक्ति का अभाव इन दोनों में से एक दोष अनिवार्य है । हे जिनेद्र ! आपने तो षड्जीवकायोंको ( पृथ्वी; अप, तेज, वायु, वनस्पति, त्रसकाय ) इस प्रकार से अनन्तसंख्यक कहा है, जिससे कोई दोष नहीं होता । (जो अनन्तसंख्यक है, उस में से अनन्त संख्यक पदार्थ के निकाल जाने पर भी, उसकी अनन्तता रहेगी ) अन्यथा उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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