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________________ कीर्तिकलाब्वख्यो हिन्दीभाषाऽनुवाद १२५ शुक्लध्यानादिरूपसमाधि से युक्त तथा उपकारी एवं अपकारी के विषय में समदर्शी हे स्वामी ! उक्त गुणविशिष्ट होने के कारण अवसर नहीं मिलने से जैसे रागद्वेषादि अधममनोवृत्तियां आपके जन्म या केवलज्ञान से पूर्व ही दूसरे देवों का आश्रित हो गयीं। आपकी करुणा भी परोपकार के लिये ही है, किन्तु रागमूलक नहीं । (क्यों कि आपमें रागादि का अभाव है। दूसरे देवों की करुणा तो भक्तों के ऊपर ही होती है, इसलिये रागमूलक है । अतः निःस्वार्थदयालु तथा वीतराग होने के कारण आप आप्त ही हैं,।) ॥ १८ ॥ हे भगवन् वीतराग ! अन्यतीर्थिकों के इष्ट देव जैसे तैसे संसारका सर्जन या संहार करें। (वास्तविक तो ऐसा नहीं हो सकता, क्यों कि संसार अनादि तथा अनन्त है।) किन्तु भवपरस्परा के नाश करने में समर्थ ऐसा उपदेश तो केवल आपका ही है । इस विषय में तो वे देव अत्यन्त ही असमर्थ हैं। (जो सर्जन और संहार करने बाले हैं, वे मुक्ति का नहीं, किन्तु सर्जन और नाश का ही उपदेश दे सकते हैं । मुक्ति का उपदेश तो आरम्भ से रहित देव ही दे सकते हैं । जैसा कारण वैसा ही कार्य होता है।) ॥ १९ ॥ हे जिनेन्द्र ! पर्यङ्कासनस्थित मृदु और नम्र शरीर, नाक के अग्र भाग में स्थिर दृष्टि, इस प्रकार की आपकी योगमुद्रा भी दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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