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________________ १२२ अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः हे जिनेन्द्र ! आपके आगम ही सज्जनों के लिये प्रमाणभूत हैं। क्यों कि आपके आगम मुक्ति आदि हितकर मार्ग के उपदेश करनेवाले हैं, आप जैसे सर्वज्ञ से रचित हैं, मुमुक्षु, विद्वान् , तथा परोपकारी ऐसे साधुजनों ने उनका स्वीकार किया है । एवं आपके आगम में आगे और पीछे के अर्थों में कहीं भी विरोध नहीं है। (यही सब प्रामाणिक आगम के लक्षण हैं। दूसरों के आगमों मे तो पूर्व में हिंसा का निषेध किया जाता है, आगे जाकर यज्ञादि कार्यों में उसी हिंसा का विधान किया जाता है। इस प्रकार उन आगमो में पूर्व तथा पर पदार्थों में विरोध स्पष्ट ही है।) ॥११॥ हे जिनेन्द्र ! दूसरे लोगों के द्वारा आपके चरणों के आसन पर देवेन्द्र के आलोटने (आप के चरणकमलों में देवेन्द्र द्वारा किये गये प्रणामों) का खण्डन किया जा सकता है। (क्यों कि वह कोई देखता नहीं)। अथवा 'मेरे तीर्थकर को भी देवेन्द्र प्रणाम करते हैं, ऐसा कहकर, समानता बतलायी जा सकती हैं । किन्तु आपके यथार्थ स्वरूप में पदार्थ के उपदेश का निराकरण कैसे किया सकता है ? । (क्यों कि वस्तु प्रत्यक्ष हैं। इसलिये उनका अपलाप नहीं किया जा सकता। इसलिये आप केवल यथार्थ स्वरूप में वस्तु के उपदेश देने के कारण आप्त ही हैं।) ॥ १२ ॥ हे जिनेन्द्र ! यह दुःषमा आरा का बुरा प्रभाव ही हो सकता है, अथवा भवपरम्परा को बढाने बाले कर्म का विपाक ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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