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________________ १२० अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः वाले हैं। दूसरे नहीं। इसलिये उनको दूर से ही नमस्कार करना चाहिये। उनसे सूनना या उनका अनुसरण योग्य नहीं ।) ॥५॥ हे जिनेन्द्र ! केवलज्ञानालोक से प्रत्यक्ष देखने के कारण (निष्कारण वत्सलता से) सदा ही आग्रह पूर्वक (सदुपदेशादि के द्वारा)-जगत को कृतार्थ करते रहने पर भी, दूसरे लोगों के द्वारा (जीव को बचाने के लिये वाघ को) अपना मांस देकर व्यर्थ के दयालु कहलाने वाले आपसे भिन्न तीर्थकर क्या आश्रित किये गये हैं ? । (दयालुता उन में नहीं है। क्यों कि एक जीव को बचाने के लिये अपना मांस देकर मांस में रहनेवाले अनेक जीवों के नाश में कारण बने । ऐसी स्थिति में सर्वजीवों को कृतार्थ करने बाले आपका आश्रय ही उचित है ।) ॥ ६ ॥ हे जिनेन्द्र !, (उन को समझाया भी नहीं जा सकता, क्यों कि-) वे लोग स्वयं तो कुमार्ग को प्राप्त करते ही है, साथ ही धर्म की जिज्ञासा से पूछनेबाले को भी कुमार्ग में ही ले जाते हैं । तथा गुण में दोष देखने के कारण अन्धों के जैसे ही दोषों के न देखने बाले वे लोग, सन्मार्ग के जानने बाले, सन्मार्ग पर चलने बाले तथा हितबुद्धि से सन्मार्ग के बतलाने बाले का आदर नहीं करते । (इसलिये केवल आप ही सन्मार्ग के जानने बाले, सन्मार्ग पर चलने बाले तथा सन्मार्ग उपदेश देने बाले हो, दूसरे नहीं) ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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