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________________ की। इन्द्र ने कहा कि सब कुछ अन्यथा हो जाए किन्तु युगादीश के वचन विपरीत रूप में परिणमित नहीं होते हैं । दाता, कुलीन, अच्छे वचन वाला तथा कान्ति से समृद्ध पुरुष ही रत्न है, पाषाण विशेष रत्न नहीं है, अत: आपको रत्नगर्भा देखकर पृथिवी रत्नगर्भा इस नाम से लज्जित होती है। आपके होने वाले पुत्र के भरत नाम धारण करने पर यह भूमि 'भारती' इस ख्याति के होने पर सुस्वामि की प्राप्ति से समुत्पन्न मोद धारण करेगी। नव निधियों की स्वाधीनता तुम्हारे पुत्र में होगी। वह मनुष्य लोक में श्रेष्ठ होगा। इस प्रकार प्रशंसा कर इन्द्र अदृश्य हो गया। इन्द्र के चले जाने पर उसकी वाणी से विमुग्ध सुमङ्गला खिन्न हो गई। न तो चन्दन, न चन्द्रमा की किरणें, न दक्षिण दिशा का पवन, न महद्वन अथवा शर्करामिश्रित दूध अथवा अमृत उस प्रकार प्रमोद के लिए होते हैं, जैसे सत्पुरुषों के वचन प्रमोद के लिए होते हैं । सखियों द्वारा प्रेरित होने पर सुमङ्गला ने स्नान कर भोजन किया। जैनकुमारसम्भव : एक महाकाव्य महाकाव्य की सबसे अधिक स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा १५वीं शताब्दी में विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में दी है, तदनुसार पद्यबन्ध के प्रकारों में जो सर्गबन्धात्मक काव्य प्रकार है, वह महाकाव्य कहलाता है। (चरित्र वर्णन की दृष्टि से) इस सर्गबन्ध रूप महाकाव्य में एक ही नायक का चरित्र चित्रित किया जाता है। यह नायक कोई देवविशेष या प्रख्यात वंश का राजा होता है। यह धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त होता है। किसी-किसी महाकाव्य में एक राजवंश में उत्पन्न अनेक कुलीन राजाओं की भी चरित्र चर्चा दिखाई देती है। (रसाभिव्यंजन की दृष्टि से) शृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस प्रधान होता है । इन तीनों रसों में से जो रस भी प्रधान रखा जाए उसकी अपेक्षा अन्य सभी रस अप्रधान रूप से अभिव्यक्त किये जा सकते हैं । (संस्थान रचना की दृष्टि से) नाटक की सभी सन्धियाँ महाकाव्य में आवश्यक मानी गयी हैं। (इतिवृत्त योजना की दृष्टि से) कोई भी ऐतिहासिक अथवा किसी भी महापुरुष से सम्बद्ध कोई लोकप्रिय वृत्त यहाँ वर्णित होता है। (उपयोगिता की दृष्टि से) महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का काव्यात्मक निरूपण होता है। यह मङ्गल नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक होता है। किसी-किसी महाकाव्य में खलनिन्दा और सज्जन प्रशंसा भी निबद्ध होती है। इसमें न बहुत छोटे, न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं। प्रत्येक सर्ग में एक-एक छन्द होता है किन्तु (सर्ग का) अन्तिम भाग पद्य भिन्न छन्द का होता है। कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं । सर्ग के अन्त में अगली कथा की सूचना होनी चाहिये। इसमें संध्या, सूर्य, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मंत्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव साङ्गोपाङ्ग वर्णन होना चाहिये। इसका नाम कवि के नाम से या चरित्र के नाम से अथवा चरित्र नायक के नाम से होना चाहिये। सर्ग का वर्णनीय कथा से सर्ग का नाम लिखा जाता है । सन्धियों के अंग यहाँ यथासम्भव रखने चाहिये। जलक्रीड़ा, मधुपानादि साङ्गोपाङ्ग होने चाहिये। महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षण न्यूनाधिक रूप में जैनकुमारसम्भव में घटित होते हैं। इसे सर्गों में विभाजित किया गया है। इसका मङ्गलाचरण वस्तुनिर्देश पूर्वक होता है। समस्त महाकाव्य श्री ऋषभदेव के नाम से पवित्र है, अत: सब कुछ मङ्गलमय है। कोशला में भगवान् ऋषभदेव का जन्म होने के कारण वह तीर्थस्वरूप है। अत: उसका नाम भी मङ्गल रूप है। यह काव्य शान्त रस प्रधान है। [ प्रस्तावना] Jain Education International (५) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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