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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ___ एक और उनके मित्रने इस विषयमें उनसे आग्रह किया था। उसका श्रीमद् राजचन्द्रने जो सविस्तर खुलासा किया है उस परसे उनके इस विषयमें जो मनोभाव थे उनका खूब स्पष्टीकरण हो जाता है। वह पत्र यह है___ आपने जो लिखा उसका भाव यह है कि "जैसा चलता आया है वैसा चलने दो, मेरे लिए उसमें प्रतिबंधका कोई कारण नहीं है।" इस पर मैं कुछ संक्षेपमें लिखता हूँ। उससे सब बातें ज्ञात हो जायेंगी। __"हमें जैनदर्शनकी दृष्टि से सम्यग्दर्शन और वेदान्तकी दृष्टिसे केवलज्ञानका होना संभव है । मात्र जैनदर्शनमें जो केवलज्ञानका स्वरूप लिखा है उसका समझना कठिन पड़ जाता है । और वर्तमान कालमें जैनदर्शनने ही उसकी प्राप्तिका निषेध किया है, इस लिए उसके लिए तो प्रयत्न करना सफल ही नहीं हो सकता । जैनधर्मके साथ हमारा विशेष सम्बन्ध रहा है, इस लिए उसका उद्धार हम जैसोंके द्वारा, हर प्रयत्नसे विशेषतया हो सकता है। क्योंकि उसके उद्धार करनेवालेके लिए इस बातकी आवश्यकता है कि उसने जैनधर्मका स्वरूप भली भाँति समझ लिया हो,-आदि---- वर्तमानमें जैनदर्शन इतना अधिक अव्यवस्थित अथवा विपरीत स्थितिमें देखने में आता है कि उसमेंसे मानों जिनभगवान्के----- हैं; और लोग उसी मार्गका प्ररूपण करते हैं। बाह्य आडम्बर बहुत बढ़ा दिया गया है और अन्तरंग ज्ञानका एक प्रकार विच्छेद हीके जैसा हो गया है। वैदिक मार्गमें दो-सौ चारसौ वर्षों में कोई कोई महान् आचार्य हुए दिखाई पड़ते हैं कि जिनसे वैदिक मार्गका प्रचार बढ़ कर लाखों मनुष्य उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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