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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ३ उसे पूर्ण करनेके साधनोंकी प्राप्ति बड़ी कठिन है। ४ उसकी प्रभावना होनेमें बड़े विघ्न हैं । ५ इसी प्रकार देश-काल आदि भी उसके बहुत प्रतिकूल हैं। . ६ वीतरागियोंका मत लोगोंके प्रतिकूल हो गया है। ७ रूढिसे जो लोग उसे मानते हैं, नहीं जान पड़ता कि उनका भी उस पर विश्वास है या नहीं; अथवा वे अन्यमतको वीतराग-प्रणीत मत समझ कर उसमें प्रवृत्ति करते जाते हैं। ८ उनमें यथार्थ वीतराग-प्रणीत मार्गके समझनेकी बड़ी कमी है। ९ मोहका प्रबल राज्य है। १० लोगोंने वेष आदिके व्यवहारमें बड़ी भारी विडम्बना करके मोक्षमार्गमें अन्तराय-विघ्न-उपस्थित कर दिया है। ११ तुच्छजन उसके विराधक बन कर मुखिया बनते हैं। १२ उसका थोड़ा भी सत्य प्रकट होता है तो इन लोगोंको वह प्राणघातके बराबर दुःख-कारक हो पड़ता है। इस प्रकार श्रीमद् राजचंद्र जैनधर्मके पुनरुद्धारके सम्बन्धमें विघ्न मानते थे। ध्यानमें रखना चाहिए कि इन कारणोंको श्रीमद् राजचंद्रने अपनी प्राइवेट डायरीमें नोंद कर रक्खे हैं । इन कारणोंको डायरीमें लिख कर उन्होंने अपने आपसे प्रश्न किया है कि "तब तुम किस लिए धर्मके पुनरुद्धारकी इच्छा करते हो ?” इस प्रश्नके उत्तरमें स्वयं ही उन्होंने उत्तर दिया है कि इच्छा परम करुणा-भावसे और सद्धर्मके प्रति परम भक्तिके वश होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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