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________________ श्रीमद् राजचन्द्रशिथिलतासे हो, उदय-वश हो, दूसरेकी इच्छासे हो या भावीके वश हो। वह कम कैसे किया जा सकेगा; क्योंकि उसका विस्तार बहुत ही फैल रहा है। वह कहीं व्यापारके सम्बन्धसे है, कहीं कुटुम्ब-परिवारके प्रतिबन्धके कारणसे है, कहीं युवावस्थाके प्रतिबन्ध-रूपसे है, कहीं दयाके रूपमें है और कहीं उदय-रूपसे है । यह मैं जानता हूँ कि जब अनन्त काल तक प्राप्त न हुआ आत्म-स्वरूप केवलदर्शन और केवलज्ञान प्राप्त होने पर अन्तर्मुहूर्त मात्रमें प्राप्त किया गया है तब वर्ष, छह महीनेके जितने कालमें इतना व्यवहार कैसे कम न किया जा सकेगा । वह केवल उपयोग दशाको जाग्रत करने पर निर्भर है; और उस उपयोगकी शक्तिका नित्य विचार करते रहने पर थोड़े समयमें निवृत्त हो सकता है । तब भी मेरा विश्वास है कि इतना विचार अब भी करना आवश्यक है कि किस प्रकार उसकी निवृत्ति करना उचित है; क्योंकि आत्म-सामर्थ्य कुछ मंदसा हो रहा है। इस मंद अवस्थाका कारण क्या है ? इस पर विचार करनेसे यह कहनेमें कुछ बाधा न आयगी कि उदयके बलसे प्राप्त हुआ संसार-समागम ही इसका कारण है । इस समागमसे बड़ी अरुचि रहा करती है तो भी इसमें शामिल होना पड़ता है । वह समागमका दोष नहीं किन्तु मेरा ही दोष है। अरुचि होनेसे इच्छाका दोष न कह कर उदयका दोष कहा है।" इस प्रकार उनकी डायरी उनके गुण-दोषोंको दिखलानेके लिए काचके सदृश है। और उसमें यह बात भी लिखी है कि उन्हें कितने भव धारण करना पड़ेंगे, जिसका कि ऊपर जिकर आ चुका है । इस जड़वादके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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