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________________ परिचय। प्रवृत्तिकी ओर न होनी चाहिए। जान पड़ता है इसी लिए श्रीमद् राजचंद्रकी इच्छा इंगलैण्ड आदि विदेशोंमें जानेकी न हुई होगी । और बहुत संभव है इसी कारण उन्होंने सर चार्ल्स महोदयसे इन्कार कर दिया था। जब यह बतलाया गया कि मात्र १९ वर्षकी अवस्थामें ही श्रीमद् राजचंद्रमें स्व-पर-कल्याणकी इस प्रकार महत्त्वाकांक्षा जाग्रत हो गई थी तब खभावसे यह प्रश्न होता है कि इस प्रकारकी महत्त्वाकांक्षा करनेके पहले उनमें इस प्रकारके विचार करनेकी शक्ति कैसे उत्पन्न हुई ? यह एक बड़ी कठिन समस्या है कि इस प्रश्नका समाधान किस प्रकार किया जाय। ऊपर उल्लेख किये हुए श्रीमद् राजचंद्रके मनोरथोंके पहले भाग परसे जान पड़ता है कि उनका पहला मनोरथ आत्म-हित साधन करनेका था, और दूसरा मनोरथ नव तत्त्वोंकी स्वयं विशेष जानकारी प्राप्त कर समाजको उसका लाभ प्राप्त कराना था । जिन्होंने मानस-शास्त्रका अभ्यास किया है वे जानते हैं कि जब मनुष्यमें किसी भी प्रकारके विचार उत्पन्न होते हैं तब उसके पहले उस मनुष्यको उसी प्रकारके विचार-वातावरणमें रहने, या ऐसे ही विचारोंके अभ्यास या अवलोकन करनेकी आवश्यकता है। मतलब यह कि जिस प्रकारके विचार मनमें उठे उसके पहले उस विषयका ज्ञान होना ही चाहिए। हमारे मनमें एक विशाल, भव्य भवन बनानेके विचार तब ही उत्पन्न हो सकते हैं जब कि हमने वैसा ही भव्य भवन कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष देखा हो-उसे स्वयं देखा हो या किसीके द्वारा उसका विवरण सुना हो । इन दोनों बातोंमेंसे किसी एक प्रकारका ज्ञान हुए बिना किसी वस्तु या विषयका विचार-ज्ञान-नहीं हो सकता । जिस भाँति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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