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________________ स्तुतिविद्या बत् यस्मात् । न प्रतिषेधे । पुनातीति पावकः पवित्रः । नाग्निः । भवान् महारकः । न प्रतिषेधे। एकोपि' प्रधानोपि असहायोपि । नेतेव नायक इव । स्वं युष्मदः प्रयोगः । प्रायः पाश्रयणीयः। सुपावकः सप्तम. चोर्थकर स्वामी। किमुक्त भवति-स्तुतिं करोति यः कोपं करोति य: ख्योः द्वयोर्न न समानः किन्तु समान एव । ततः त्वं सुपाश्र्धकः एकोपि सन् पावक इति कृत्वा नेतेध सवेरपि प्राश्रयः ॥ २६॥ १. अर्थ-हे भगवन् ! सुपार्श्वनाथ ! आप, स्तुति करनेवाले और निन्दा करनेवाले दोनोंके विषय में समान हैं-रागद्वष से रहित हैं। सबको पवित्र करनेवाले हैं--सबको हितका उपदेश देकर कर्मबन्धनसे छुटानेवाले हैं। अतः आप एक अस. हाय ( दूसरे पक्षमें प्रधान ) होनेपर भी नेताकी तरह सबके द्वारा श्राश्रयणीय हैं-सेवनीय हैं। मावार्थ-जिस तरह एकही नेता अनेक आदमियोंको मार्ग प्रदर्शनकर इष्ट स्थानपर पहुँचा देता है उसी तरह आप भी अनेक जीवोंको मोक्षमार्ग बतलाकर इष्ट स्थानपर पहुंचा देते हैं और स्वयं भी पहुंचे हैं अतः आप सबकी श्रद्धा और भक्तिके भाजन हैं रिहा चन्द्रप्रभ-जिन-स्तुतिः ___(मुरजः ) चन्द्रप्रभो दयोजेयो विचित्रेऽभात् कुमण्डले । रुन्द्रशेमोक्षयोमेयो रुचिरे भानुमण्डले ॥३०॥ चन्द्रप्रभ इति-चन्द्रप्रभः अष्ठमतीर्थकरः । दयते इति दयः कः । न जीयते इत्यजेयः जितारिचक्र इत्यर्थः । विचित्रे नानाप्रकारे । प्रमात् शोभितः भा दीप्तौ अस्य घोर्लङन्तस्य रुपम् । कुमण्डले पृथ्वी. १ एके मुक्यान्यवलाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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