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________________ समन्तभद्र-भारतो हो जाता है । संसारमें नष्ट वही हुप्रा है-जन्म-मरणके दुर वही उठा रहा है--जिसने (हृदय से ) आपको नमस्कार नहीं किया । हे स्वामिन् ! जो आपको नमस्कार कर दुष्कर्मोकोपापोंको-नष्ट करता है वह अवश्य ही ज्ञानादि गुणोंसे वर्ष मान या सम्पन्न हो जाता है। _____ भावार्थ-जिनका हृदय आपकी भक्तिसे उज्वल होता वे ही जीव दुष्कर्मों का क्षय कर उच्च अवस्थाको प्राप्त होते है। श्रात्मासे परमात्मा होजाते हैं और वे ही जीव अन्तमें सर्व कर्मोंका विनाश कर मुक्त अवस्थाको प्राप्त होते हैं:-संसार के दुःखोंसे पूर्णतया छूट जाते हैं ।। २४ ।। . सुमति-जिन-स्तुतिः (समुद्गकयमकः ।) देहिनो जयिनः श्रेयः सदाऽतः सुमते ! हितः । देहि नोजयिनः' श्रेयः स दातः सुमतेहितः ॥२५॥ देहीति-यादृग्भूतं पूर्वाद्ध पश्चाई मपि तादृग्भूतमेव समद्गर इव समुद्गकः । ___ देहिनः प्राणिनः । जयिनः जयनशीलस्य । कर्तरि ता । श्रेयः श्रय णीयः । सदा सर्वकालम् । अत: अस्माद तो: हे सुमते । हितः स्वम् समतिरिति पंचमतीर्थङ्करस्य नाम । देहि दुदान दाने इत्यस्य धो लोडन्तस्य रूपम् । नः अस्माकम् । न जायते इत्यजः । इन स्वामिन् श्रेयः सुखम् । स एवं विशिष्टिस्त्वम् । हे दातः दानशील । मतं पागम १ नः+ अज:+इनः इति पदच्छेदः ! अज शब्दः स्वौजसमौडि सुप्रत्ययः । ससजुषोरुरिति रुत्वम् । 'भो भगो अधो अपूर्वस्य योऽशि इति रोर्यादेशः । लोपः शाकल्यस्येति विकरुपेन यकारलोपः। ततो ना विकल्पस्वाल्लोपः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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