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________________ २६ समन्तभद्र- भारती नेपि चामशब्दः प्रवर्त्तते । वामानामीशः स्वामी वामेशः तस्य सम्बोधनं हे वामेश | पायाः रक्ष । पा रक्षणे इत्यस्य धोः श्राशीलिंङन्तस्य प्रयोगः । मा श्रस्मदः इबन्तस्य रूपम् । नतं प्रणतम् । एकैः प्रधानैः श्रर्यः पूज्यः एकार्थः, अथवा एकश्चासावर्च्यश्च एकार्थ्यः तस्य सम्बोधनं हे एकार्थ्यं । शम्भवः तृतीयतीर्थ करभट्टारकः तस्य सम्बोधनं हे शम्भव ! किमुक्क ं भवति- -यस्य न इन: रागादिचेष्टा च पापगा यस्य नास्ति यस्य नाश्रीयते वामै: नयश्रीः हे शम्भव स त्वं स्वतेजसा मा श्रागतं शोभनाचारं नतं पायाः एतदुक्तं भवति ॥ १६ ॥ अर्थ - जिनके पाप बन्ध करानेवाली रागादिचेष्टाओंका सर्वथा अभाव हो गया है और जिनकी अपार नयलक्ष्मीको भूमितलपर मिथ्यादृष्टि लोग प्राप्त नहीं हो सकते ऐसे, इन्द्र चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुषोंके नायक ! अद्वितीय पूज्य ! हे शंभवनाथ जिनेन्द्र ! आप सबके स्वामी हैं--रक्षक हैं, अत: अपने दिव्य तेजद्वारा मेरी भी रक्षा कीजिये । मेरा श्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है । मैं संसार के दुःखोंसे डर कर शरीर के साथ आपके समीप आया हूं । 1 भावार्थ- 'मैं किसीका भलाया बुराकरू" इस तरह रागद्वेषसे पूर्ण इच्छा और तदनुकूल क्रियाएं यद्यपि वीतराग के के नहीं होतीं तथापि वीतरागदेवकी भक्ति से भक्त जीवोंका स्वतः भला हो जाता है, क्योंकि वीतरागकी भक्ति से शुभ कर्मो में अनुभाग (रस) अधिक पड़ता है, फलतः पाप कर्मोंका रस घट जाता अथवा निर्बल पड़ जाता है और अन्तराय कर्म बाधक न रहकर इष्टकी सिद्धि सहज ही हो जाती है । इसी नयदृष्टिको लेकर अलंकारकी भाषा में आचार्य समन्तभद्र भगवान् शंभवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं संसारसे डर कर आपकी शरण में आया हूं, मेरा आचार पवित्र है और मैं आपको नमस्कार कर रहा हूं अतः आप मेरी रक्षा कीजिये, - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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