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________________ समन्तभद्र-भारती विनिर्मितश्रमस्तोत्रदर्दुरिणः । तेः सह अथवा विनिर्मितस्तोत्रश्रमेण दई. रिणोतस्तै: सह जनैः समवसृतिप्रजाभिरित्यर्थः । किमुक्त भवतिचतुर्णिकायदेवेन्द्रचक्रधरबलदेववासुदेवत्रभृतिभिः सह गत: स्थितश्च भवान्, ततो भवानेव परमात्मा एतदुक्तं भवति ॥६॥ __ अर्थ हे ऋषभदेव ! आप नम्र मनुष्योंकी सांसरिक व्यथा ओंको हरने वाले हैं, शोकरहित हैं, आपका हृदय उत्तम हैलोककल्याणकारक भावनासे पूर्ण है । हे प्रभो! आप भामण्डल, सिंहासन, अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, मनोहर दिव्यध्वनि, श्वेतच्छत्र, चमर और दुन्दुभिनिनादसे शोभित होकर, अनेक स्तोत्रोंमें श्रम करनेवाले-मधुरध्वनिसे अनेक स्तुति करने वाले तथा दर्दुर आदि वाद्योंसे सहित दिव्यजनोंके -देवेन्द्र विद्याधर चक्रवर्ती आदिके-साथ ( समवसरणभूमिमें ) आसीन-स्थित) हुए थे और उन्हीं के साथ आपने आकाशविहार किया था। ___ भवार्थ-जब भगवान् समवसरण-भूमिमें विराजमान होते हैं तब उनके तीर्थकर नामकर्मके उदयके फलस्वरूप अष्ट प्रातिहार्यरूप विभूति प्रकट होती है वे उससे अत्यन्त शोभायमान होते हैं। समवसरण में बैठे हुए देव विद्याधर आदि भव्यजीव तरह-तरहके बाजे बजाते हुए मनोहर शब्दोंसे उनकी स्तुति करते हैं। तथा जब भगवानका आकाश-मार्गसे विहार होता है तब भी प्रातिहार्यरूप विभूति और अनेक उत्तम जन उनके साथ रहते हैं । इन सब बातोंसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान् ऋषभदेवका अलौफिक प्रभाव प्रकट किया है ।।५,६।। t omisinamainabilitilation vaigirlus A Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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