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________________ स्तुतिविद्या आसते सततं ये च सति पुर्वक्षयालये। ते पुण्यदा रतायातं सर्वदा माऽभिरक्षत ॥४॥ (युग्मम्) धियेति । अद्ध भ्रमगूढपश्चाद्ध। कोऽस्थार्थः चतुरोऽपि पादानधोऽधो विन्यस्य चतुर्णा पादानां चत्वारि प्रथमावराणि अन्त्याक्षराणि चत्वारिगृहोस्वा प्रथमः पादो भवति । पुनरपि तेषां द्वितीयाक्षराणि चत्वार्यन्त्यसमीपाक्षराणि च चत्वारि गृहीत्वा द्वितीयः पादो भवति । एवं चत्वारोऽपि पादाः साध्याः। अनेन न्यायेन अर्द्ध भ्रमो भवति । प्रथमाई यान्यवराणि तेषु पश्चिमाक्षराणि सर्वाणि प्रविशन्ति । एकस्मिन्नपि समानाक्षरे जाता है । उन्हीं चारों चरणों के द्वितीय तथा उपान्त्य अक्षर मिनानेसे द्वितीय पाद बन जाता है। इसी तरह तृतीय और चतुर्थ पाद भी सिद्ध कर लेना चाहिये । इस न्यायसे यह श्लोक अर्धभ्रम कहलाता है। इस श्लोकके पूर्वार्धमें जो अक्षर आये हैं उन्होंमें उत्तरार्धके सब अक्षर प्रविष्ट हो जाते हैं। एक समान अक्षरमें अनेक समानारोंका भी प्रवेश हो सकता है। इसलिये इसे गूढ पश्चार्ध (जिसका पश्चार्ध भाग पूर्वार्ध भागमें भी गुप्त हो जावे) कहते हैं। (अलंकारचिन्तामणि पृष्ठ ३६) यह अलंकार इस पुस्तकके ४, १८, १९, २०, २१, २७, ३६, १३, ४४, ५६, ६० और १२ नम्बरके श्लोकोंमें भी है । इस अलंकारमें कभी द्वितीय, कभी तृतीय और कभी चतुर्थ पाद भी गूढ हो जाता हैं। जैसे कि इसो पुस्तकके ३६वें श्लोकमें द्वितीयपाद और ४३३ श्लोकमें चतुर्थयाद गूढ हो गया है। अर्धभ्रकका चित्र परिशिष्टमें देखिये। "द्वाभ्यां युग्ममिति प्रोक्तं त्रिभिः श्लोकैविशेषकम् । कलापकं चतुर्भिः स्यात्तदूर्व कुलकं स्मृतम् ।। दो, तीन, चार और उसके ऊपरके श्लोकोंमें क्रियासम्बन्ध होनेपर मसे उनकी युग्म, विशेषक, कलापक, और कुजक संज्ञा होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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