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________________ प्रस्तावना समन्तभद्रके इन सच्चे हार्दिक उद्गारोंसे यह स्पष्ट चित्र खिंच जाता है कि वे कैसे और कितने 'अद्भक्त' थे और उन्होंने कहाँ तक अपनेको अर्हत्सेवाके लिये अर्पण कर दिया था। अर्हद्गुणोंमें इतनी अधिक प्रीति होनेसे ही वे अर्हन्त होनेके योग्य और अर्हन्तोंमें भी तीर्थकर होने के योग्य पुण्य संचय कर सके हैं। इसीसे अनेक ग्रन्थों में आपके भावी तीर्थङ्कर' होनेका विधान पाया जाता है। अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक . सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचनेकी ओर समन्तभद्रकी बड़ी रुचि थी, उन्होंने इसीको अपना व्यसन लिखा है और यह बिल्कुल ठीक है। उनके उपलब्ध ग्रंथों में अधिकांश ग्रन्थ स्तोत्रोंके ही रूपको लिय हुए हैं और उनसे समन्तभद्रकी अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होती है। प्रस्तुत प्रन्थ (स्तुतिविद्या) को छोड़कर स्वयम्भूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन आपके खास स्तुति-अन्थ हैं। इन प्रन्थोंमें जिस स्तोत्र-प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्त्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समन्तभदसे पहलेके प्रन्थों में प्रायः नहीं पाई जाती अथवा बहुत ही कम पाई जाती है। समन्तभद्रने अपने स्तुतिप्रन्थोंक द्वारा स्तुतिविद्याका खास तोरसे उद्धार, संस्कार तथा विकास किया है और इसीलिये वे 'स्तुतिकार कहलातेथे। उन्हें 'आधस्तुतिकार' होने का गौरव प्राप्त था। समन्तभद्र कांची ( दक्षिण-काशी अथवा कांजीवरम् ) के नग्नाटक थे-निन्थ दिगम्बर साधु थे। मापने लोकहितकी देखो, विकात कोरच, जिनेन्द्रकस्याणाभ्युय, षट्प्राभृत-टोका (श्रुतसागर), अराधनाकयाकोश, राजावखिकथे और 'भट्टहरी नापडिहरि' नामको प्रसिद्ध गाथा अथवा 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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