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________________ प्रस्तावना विकासको प्राप्त हुए थे और जिनके कारण उनका यश चूड़ा. मणिके समान सर्वोपरि था और उसकी छाया बादको भी उस विषयके विद्वानोंके ऊपर पड़ती रही है और उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उसे शिरोधार्य किया है । टीकाकारने भी हार्किक चूडामणिश्रीमत्समन्तभद्राचार्यविरचिता' लिखकर इसे उन्हीं समन्तभद्राचार्यकी कृति घोषित किया है । इसके सिवाय, दूसरे आचार्यों तथा विद्वानोंने भी इस ग्रन्थके वाक्यों. का समन्तभद्र के नामसे, अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। उदाहरणके लिये 'अलंकारचिन्तामणि' को लीजिये, जिसमें अजितसेनाचार्यने निम्न वाक्यके साथ इस प्रन्थके कितने ही पद्योंको प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है श्रीमत्समन्तभद्रार्य-जिनसेनादि-भाषितम् । लक्ष्यमात्रं लिखामि स्व-नामसूचित-लक्षणम् ।। ऐसी स्थितिमें इस ग्रन्थके समन्तभद्रकृत होनमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। वास्तव में ऐसे ही महत्वपूर्ण काव्य. ग्रन्थोंके द्वारा समन्तभद्रकी काव्यकीर्ति जगतमें विस्तारको प्राप्त हुई है। इस ग्रन्थमें अपूर्व शब्दचातुर्यको लिये हुए जो निर्मल भक्ति-गंगा बहाई गई है उसके उपयुक्त पात्र भो आप ही थे-दूसरे नहीं। और इसलिये प्रन्थके अन्तिम काव्यकी छह आरों तथा नव वलयोंवाली चित्ररचनापरसे सप्तम वलय. में जो शान्तिरर्मकतं: वाक्यकी उपलब्धि होती है और उससे १. जैसा कि विक्रमकी हवीं शताब्दीके विद्वान् भगवज्जिनसेना. चार्य के निम्न वाक्यले प्रकट है कवीनां गमकानां च पादीनां धाग्मिनानपि । यशः सामन्तमद्रीयं मूमि चूडामणीयते ॥ ४४ ॥ -मादिपुराय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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