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________________ स्तुविविद्या दूसरे भक्तजन स्वयं ही बिना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करने में प्रवृत्त हो गये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे। इसी तरह सन्तने उस भक्तको लक्ष्य करके कोई खास उपदेश भी नहीं दिया, फिर भी वह भक्त उस संत की दिनचर्या और अवाग्विसर्ग (मौनोपदेशरूप ) मुख-मुद्रादिकपर. से स्वयं ही उपदेश प्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त हो गया। परन्तु यह सब कुछ घटित होनेमें उस सन्त पुरुषका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा है-भले ही वह कितना ही उदासीन क्यों न हो। इसीसे भक्तद्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुषको ही दिया गया है। इन सब उदाहरणोंपरसे यह बात सहज ही समझमें आजाती है कि किसी कार्यका कर्ता या कारण होनेके लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य) अथवा जरूरी नहीं हैं कि उसके साथमें इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हों, वह उनके विना भी हो सकता है और होता है। साथ हो, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तुको अपने हाथसे उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करके अथवा आदेश देकर दिला देनेसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है; जब कि उसके निमित्तसे, प्रभावसे, आश्रयमें रहनेसे, सम्पर्कमें आनेसे, कारणका कारण बननेसे कोई वस्तु किसीको प्राप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिमें परमवोतसग श्रीअर्हन्तादिदेवोंमें कर्तृत्वादि-विषय का आरोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा (direct) किसीका कोई कार्य न करते हों, मोहनीय कर्मके अभावसे उनमें इच्छाका अस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या आज्ञा देना ही उनसे बनता हो। क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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