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________________ प्रस्तावना दो व्यञ्जनाक्षरोंसे ही जिनका सारा शरीर निर्मित हुआ है'। १४ वाँ श्लोक ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकारके एकएक अक्षरसे बना है और वे अक्षर हैं क्रमशः य, न, म, त । साथ ही, 'ततोतिता तु तेतीत' नामका १३वां श्लोक ऐसा भी है जिसके सारे शरीरका निर्माण एक ही तकार अक्षरसे हुआ है। इस प्रकार यह ग्रन्थ शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार और चित्रालङ्कारके अनेक भेद-प्रभेदोंसे अलंकृत है और इसीसे टीकाकार महोदयने टीकाके प्रारंभमें हो इस कृतिको समस्तगुणगणोपेता' विशेषणके साथ 'सर्वालंकारभूषिता' (प्रायः सब अलंकारोंसे भूषित ) लिखा है। सचमुच यह गूढ ग्रन्थ ग्रन्थकारमहोदयके अपूर्व काव्य-कौशल, अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करता है। इसकी दुर्बोधताका उल्लेख टीकाकारने 'योगिनामपि दुष्करा'-योगियोंके लिये भी दुर्गम (कठिनतासे बोधगम्य)-विशेषणके द्वारा किया है और साथ ही इस कृतिको 'सद्गुणाधारा' ( उत्तम गुणों को आधार भूत) बतलाते हुए 'सुपद्मिनी' भी सूचित किया है और इससे इसके अंगोंकी कोमलता, सुरभिता और सुन्दरताका भी सहज सूचन हो जाता है, जो ग्रन्थमें पद पदपर लक्षित होती है। ग्रन्थरचनाका उद्देश्य इस प्रन्थकी रचनाका उद्देश्य, अन्धके प्रथम पद्यमें 'आगसां जये' वाक्य के द्वारा 'पापोंको जीतना बतलाया है १. दोनों, पय मं०५१, ५२, ५५, ८५, १३, १४, १७, १००, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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