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________________ प्रस्तावना श्लोकमें जो अक्षर हैं वे ही उत्तरवर्ती श्लोक में हैं; परन्तु अर्थ उन सबका एक-दूसरे से प्रायः भिन्न है और वह अक्षरोंको सटा कर तथा अलगसे रखकर भिन्न भिन्न शब्दों तथा पदोंकी कल्पना-द्वारा संगठित किया गया है' । श्लोक नं० १०२ का उत्तरार्ध है-'श्रीमते वर्द्ध मानाय नमो नमितविद्विषे ।' अगले दो श्लोकोंका भी यही उत्तरार्ध इसी अक्षर-क्रमको लिये हुए है; परन्तु वहाँ अक्षरोंके विन्यासभेद और पदादिककी जुदी कल्पनाओंसे अर्थ प्रायः बदल गया है। कितने ही श्लोक ग्रन्थमें ऐसे हैं जिनमें पूर्वार्धके विषमसंख्याङ्क अक्षरोंको उत्तरार्धके समसंख्याङ्क अक्षरोंके साथ क्रमशः मिल कर पढ़नेसे पूर्वार्ध और उत्तरार्धके विषमसंख्याङ्क अक्षरोंको पूर्वार्धके समसंख्याङ्क अक्षरोंके साथ क्रमश :मिलकर पढ़ने से उत्तरार्ध होजाता है। ये श्लोक 'मुरज' अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते हैं। क्योंकि इनमें मृदङ्गाके बन्धनों जैसी चित्राकृतिको लिये हुए अक्षरोंका बन्धन रक्खा गया है। ये चित्रालङ्कार थोड़े थोड़ेसे अन्तरके कारण अनेक भेदोंको लिये हुए हैं। और अनेक श्लोकों में समाविष्ट किये गये हैं। कुछ श्लोक ऐसे भी कलापूर्ण हैं जिनके प्रथमादि चार चरणोंके चार आद्य अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके चार अन्तिम अक्षरोंके साथ मिलाकर पढ़नेसे प्रथम चरण बन जाता है। इसी तरह प्रथमादि चरणोंके द्वितीयादि अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके उपान्त्यादि अक्षरोंके साथ साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेपर द्वितीयादि चरण बनजाते हैं, ऐसे श्लोक 'अर्धभ्रम' कहलाते हैं। १. देखो, श्लोक ५, १५, २५,५२ ११.१२, १६.१७, ३७.३८, ४६-४७, ७६-७७, ६३-६४, १०६.१०७ । २. देखो श्लोक न. ३, : १, १८, १९, २०, २१, २७, ३६, ४३, ४४, १६, १०,६२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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