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________________ ४. धर्म का स्वरूप १. सच्चा धर्म ; 2. धर्म का लक्षण, 3. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार । १. सच्चा धर्म - अहो ! शान्तिमूर्ति वीतरागी जनों की निःस्वार्थता, कि इतने बड़े उद्यम से बड़े से बड़े कष्ट सहकर, अपने जीवन की प्रयोगशाला में अनुभव प्राप्त करके, महान वस्तु, शान्ति, आज बांट रहे हैं वे निःशुल्क मुफ्त | जो चाहे वह ले । मनुष्यों को ही दें, यह बात नहीं तिर्यंचों को भी। राजा हो कि रंक, सत्ताधारी हो कि फकीर, स्त्री हो कि पुरुष, बाल हो कि वृद्ध पतित समझे जाने वाले वे व्यक्ति हों जिनको कि आज शूद्र कहा जा रहा है या हो कोई तिलकधारी ब्राह्मण, सब उनकी दृष्टि में एक हैं। सबको अधिकार है उसे लेने का । उदारता, महान् उदारता । परन्तु खेद है कि फिर भी मैं हाथ खेंच लूं उससे, कुछ बेकार की वस्तु समझकर। ऐसा न कर प्रभु । हाथ बढ़ा, तू भी इन गुरुओं के प्रसाद से वंचित न रह, तेरे ही हितकी बात है, बहुत स्वाद लगेगी तुझे । विश्वास कर कि एक बार चखने के पश्चात् पूरी की पूरी खाकर पेट भरे बिना छोड़ेगा नहीं। कृतकृत्य हो जायेगा तू, भव-भव की इच्छा छोड़कर भाग जायेंगी तुझे, और निरभिलाष स्वयं बन जायेगा तू पूर्ण शान्त व सन्तुष्ट, पूर्ण प्रभु । एक बार थोड़ी सी अवश्य चख ले, मेरे कहने से चख ले। बहुत स्वाद है इसमें, मैने स्वयं इसे चखा है, विश्वास कर। और फिर तुझसे कुछ ले तो नहीं रहे हैं, कुछ न कुछ दे ही रहे । अच्छा न लगेगा तो छोड़ देना, पर एक बार लेकर देख तो सही । धर्म बेकार की वस्तु नहीं बल्कि वह महान वस्तु है, जो मुझे मेरा सबसे बड़ा अभीष्ट, जिसके लिये कि मैं न मालूम कब से असफल पुरुषार्थ करता आ रहा हूं अर्थात् शान्ति प्रदान करता है, इच्छाओं को परास्त करता है । वैसे तो पूर्व में कहे अनुसार कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो धर्म के सम्बन्ध में कुछ न कुछ अपनी टांग न अड़ाता हो, अपनी रुचि व कल्पनाओं के आधार पर कुछ न कुछ मनघड़न्त व कपोल कल्पित धर्म का स्वरूप न बता रहा हो, बिना इस बात का निश्चय किये कि मैं क्या कहे जा रहा हूं । परन्तु यहाँ जो बात इसके सम्बन्ध में बताई जायेगी, वह कपोल-कल्पित नहीं होगी । वह वही होगी, जिसका कि आविष्कार योगीजनों ने किया है, अनुभव द्वारा, स्वयं अपने जीवन में उतारकर । यह बात वही है जिसकी एक धीमी सी रेखा का, आज इस निकृष्ट युग में भी, मैं स्वयं साक्षात्कार कर रहा हूँ। यह बात वह है जिसका आधार कल्पना नहीं, युक्ति है, कल्याण है, जिसका मूल शान्ति है, जिसकी कसौटी शांति है, जिसकी परीक्षा का आधार अनुभव है, साम्प्रदायिकता या पक्षपात नहीं । माना कि आज लोक के कोने-कोने से धर्म का बाना पहनकर बरसाती मेंढ़कों की भाँति निकल पड़ने वाले वक्ताओं की अनेकों परस्पर विरोधी बातें सुन-सुनकर एक झुंझलाहट सी उत्पन्न हो चुकी है, तेरे अन्दर । एक अविश्वास सा उत्पन्न हो चुका है तेरे अन्दर, धर्म के प्रति । परन्तु एक बार और सही, यह बात अवश्य सुन, सब झुंझलाहट, सब अविश्वास दूर हो जायेगा। समझ में न आये, ऐसी भी बात नहीं है, बड़ी सरल बात है, तेरे अपने जीवन पर से गुजरी हुई, तेरी आप बीती, क्यों न समझ में आयेगी ? डर मत ! इधर आ एक बार केवल एक बार । २. धर्म का लक्षण — धर्म के अनेकों लक्षण सुनने में आ रहे हैं, पर किसी न किसी प्रकार प्रत्येक में कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा पड़ा है, उन वक्ताओं का । अतः परीक्षा करके तू स्वयं पहिचान सकता है उनकी असत्यार्थता । कोई, जिसे रोटी खाने को नहीं मिलती, कहता है कि भूखों को भोजन बांटना धर्म है । कोई, जिसे ख्याति की भावना है, कह रहा है कि ब्राह्मणों की सेवा करना धर्म है। कोई जिसे पैसे की भूख लगी है, कह रहा है कि दिवाली पर जूआ खेलना धर्म है। कोई, जिसे मांस की चाट पड़ी है कह रहा है कि देवता पर बकरे की बलि चढ़ाना धर्म है । कोई, जिसे स्वयं धनिकजनों से द्वेष है, कह रहा है कि इनका धन छीन लिया जाना धर्म है। कोई, जिसे भोगों की अभिलाषा है, कह रहा है कि धर्म-कर्म कुछ नहीं, 'खाओ पीओ मौज उड़ाओ' यही धर्म है। कोई, जो उपायहीन है, कह रहा है कि भगवान को भोग लगाना धर्म है । कोई, जिसमें द्वेष की अग्नि अधिक है, कह रहा है कि शास्त्रार्थ करना धर्म है । कोई, जिसे धन की हाय लगी है, कहता है कि भगवान को रिश्वत देना, अर्थात् बोलत-कबूलत करना धर्म है । यहाँ तक कि सन् ४७ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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