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________________ ४०. उत्तम-तप २६१ २. षड्विध बाह्यतप (१) भोजन-ग्रहण की अभिलाषा-सम्बन्धी संस्कार को तोड़ डालते हैं वे योगीजन, एक दिन, दो दिन, दस दिन अथवा महीनों-महीनों तक के उपवास धारण कर-करके । (वज्रवृषभनाराच-संहनन वाले शरीरधारी योगी वर्षभर का भी उपवास कर सकते हैं। उपवास के दिनों में जल की एक बँद भी ग्रहण नहीं करते और बराबर शान्ति में स्थिर बने रहते हैं वे। उपवास नाम भोजन मात्र के त्याग का नहीं बल्कि है, 'उप' अर्थात् निकट में 'वास' करने का नाम अर्थात् अपनी आत्मा अथवा शान्ति के निकट में वास करने का नाम उपवास है । भोजन छोड़कर व्याकुल हो जाये और दिन बीतने की प्रतीक्षा करने लगे कि कब दूसरा दिन आये और मुझे भोजन मिले, तो उपवास नहीं कहते । अत: योगीजन उपवास के समय भोजनपान न मिलने पर शान्ति से च्युत नहीं होते और इस प्रकार तोड़ डालते हैं क्षुधा से पीड़ित कर देने वाले संस्कार को । क्षुधा हो तो हो पर वे अपने बल के आधार पर उसे गिनते ही नहीं अर्थात् उपयोग के शान्ति में स्थिर रहने के कारण उस ओर लक्ष्य देते ही नहीं । यह है बाह्य-तप का पहला भेद 'अनशन'। (२) दूसरा संस्कार है वह जो कि प्राप्त वस्तु का किसी कारणवश कदाचित् उपयोग न कर पाने पर चित्त में एक विशेष प्रकार की गृद्धता का वेदन जागृत कर देता है । जैसे कि दुकान बिल्कुल न खोलना तो आप कदाचित् स्वीकार कर लें. परन्त किसी ग्राहक को आधा सौदा देकर, दकान में होते हए भी शेष आधा सौदा जिसमें साक्षात लाभ होने वाला है, किसी कारणवश देने से इन्कार कर दें । बिल्कुल न बेचने से आधा बेचना अखरता है । इसी प्रकार बिल्कुल न खाने से अल्पमात्र ही खाकर छोड़ देना कठिन है । योगीजन इस संस्कार का मूलोच्छेद करते हैं, पहले आधा पेट भोजन ग्रहण क फिर क्रम से एक-एक ग्रास कम करते हए केवल एक ग्रास मात्र में सन्तोष धारण करके और आगे भी उस ग्रास को कम करते-करते केवल एक चावल मात्र का ग्रहण करके । अत्यन्त अल्प यह भोजन या एक चावल वे इसलिए नहीं लेते कि क्षुधा में कोई अन्तर डाल देगा, बल्कि इसलिए लेते हैं कि क्षुधा के साथ-साथ अल्प-ग्रहण में पीड़ा की प्रतीति कराने वाला संस्कार टूट जाय। इस तप के द्वारा युगपत् दो संस्कार जीते जा रहे हैं-एक क्षुधा में पीड़ा को प्रतीति कराने वाला और दूसरा अल्प-ग्रहण में गृद्धता की प्रतीति कराने वाला। इसका नाम है 'अवमौदर्य या ऊनोदरी' तप। (३) किसी वस्तु की प्राप्ति या अप्राप्ति के सम्बन्ध में भले उस समय तक साम्यता बनी रहे जब तक कि उसकी प्राप्ति की आशा नहीं हो जाती परन्तु प्राप्ति की आशा हो जाने पर भी ग्रहण न करे और साम्यता बनी रहे यह बहुत कठिन है। इस संस्कार को वे योगी तोड़ते हैं। कुछ अटपटी सी बात विचार लेते हैं वे, ऐसी कि जिसका पूरा होना बहुत कठिन है, और उसे अपने मन में ही रख लेते हैं वे । स्पष्ट रूप से अथवा किसी बहाने से वचन के द्वारा या किसी शारीरिक संकेत के द्वारा या किसी भी अन्य क्रिया के द्वारा अपने उस अभिप्राय को किसी पर भी, यहाँ तक कि अपने शिष्य पर भी प्रकट नहीं करते वे। यह अभिप्राय अकस्मात् ही काकतालीय न्यायवत् पूरा हो जाए तो आहार ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं, जैसे कि 'आज सर्प मिलेगा तो आहार ग्रहण करेंगे, नहीं तो नहीं।' किसी को क्या पता कि इनके मन में क्या है ? श्रावक लोगों को अपने-अपने द्वार पर प्रतिग्रह (स्वागत) के लिए खड़ा देखते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा पूरी होते न देखकर मौन पूर्वक लौट आते हैं बिना आहार लिये, जबकि सबकी भावना यह थी कि किसी प्रकार ये मेरे घर आहार कर लें तो मेरा जीवन सफल हो जाए। वे बेचारे कुछ नहीं जान पाते कि योगी क्यों लौट गए हैं। इस प्रकार बराबर महीनों तक नगर में आहारार्थ आते हैं और लौट जाते हैं; न प्रतिज्ञा पूरी होती है और न आहार लेते हैं। किसी को क्या पता कि क्या प्रतिज्ञा की है इस योगी ने, पता हो तो एक सपेरे को ही ला बिठायें अपने घर के सामने? योगी अपनी साम्यता की परीक्षा करते रहते हैं कि प्रतिज्ञा पूरी न होने पर कुछ विकल्प तो नहीं आ रहे हैं ? यदि आते हैं तो कड़ी आलोचना द्वारा उन्हें दबाते हैं । 'मिले तो अच्छा न मिले तो अच्छा, दोनों ही बराबर हैं' ऐसे अभिप्राय पर बराबर दृढ़ बने रहते हैं और इस प्रकार क्षुधा के साथ-साथ इस तीसरे संस्कार को भी तोड़ डालते हैं वे । यह है तृतीय तप 'वृत्ति परिसंख्यान'। (४) भोजन के विकल्प-सम्बन्धी एक चौथा संस्कार भी है, और वह है स्वाद की दिशा का झुकाव । भोजन करते समय क्षुधा-निवृत्ति का प्रयोजन तो प्राय: याद भी नहीं रहता, केवल स्वाद लेने मात्र की ओर लक्ष्य चला जाता है और खाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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