SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९. तप २०४ ५.मानस तप अधिक सफलता न मिले पर झिझक हो जायेगी कुछ कम और साहस में हो जायेगी कुछ वृद्धि । ३. पुन: पुन: उस नवीन उपार्जित साहस को लेकर उत्तरोत्तर अधिक उत्साह के साथ यदि इस दिशा में उद्यम करूँ तो साहस व अन्तर्बल में होगी उत्तरोत्तर वृद्धि तथा झिझकने में हानि । ४. इस प्रकार एक दिन हो जाऊँगा मैं भी उस योगी के तुल्य जिसका बल अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हो चुका है, जिसके कारण कि अनेकों शारीरिक बाधायें-क्षुधा तृषा गर्मी सर्दी कृत, मच्छर मक्खी आदि कृत, तिर्यञ्चकृत, प्रकृतिकृत अथवा मनुष्यकृत उपसर्ग आ पड़ने पर भी, उसकी शान्ति में बाधा नहीं पड़ती उसके मुखपर विकसित मुस्कान भंग नहीं होती उसके अन्तर में पीड़ा वेदन सम्बन्धी अनिष्ट आर्तध्यान उत्पन्न नहीं होता और वह बराबर रहता है अपनी शान्ति में मग्न। परन्त ऐसी अवस्था क्रमपर्वक चलने से ही आयेगी। यदि एकदम वैसा बनने का प्रयत्न करूँगा तो फल उल्टा होगा, पीड़ा होगी, उससे आर्तध्यान और उससे कुगति । हर एक कार्य ज्ञान के आधार पर करना चाहिए, नकल नहीं । उपवास आदि क्रियाओं की महिमा नहीं गाई जा रही है यहाँ, बताया जा रहा है तप द्वारा शक्ति-वर्द्धन का सिद्धान्त।। ४. शरीर का सार्थक्य-मत भूल, भो चेतन ! मत भूल कि तू शक्ति का अर्जन करने निकला है धन का नहीं। क्यों करता है शरीर की चिन्ता? यह है ही किसलिए? तपश्चरण के द्वारा क्षीण हो तो हो । आप कारखाना लगाते हैं और उसमें मशीने फिट करते हैं तो किसलिए? 'यदि मशीन को चलाया तो घिस जायेगी', क्या ऐसा अभिप्राय रखकर माल बनाना बन्द करते हैं आप? “घिसे तो घिसे, टूटे तो टूटे, माल तो बनाना ही है, नहीं तो मशीनें हैं ही किसलिए? टूट जायेंगी तो मरम्मत कर लेंगे, अधिक घिस जाने पर मरम्मत के योग्य नहीं रहेंगी तो बदलकर और नई लगा लेंगे”, यही तो अभिप्राय रहता है आपका या कुछ और ? बस तो शरीर के प्रति योगी का भी यही अभिप्राय है। आप मशीन न समझकर 'मैं' रूप मान बैठे हैं इसे, इसीलिए इसके घिसने या टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से डरते हैं, पर योगी इसे मशीन समझते हैं जिसे उन्होंने शान्तिरूपी माल तैयार करने के लिए लगाया है । अत: वे इसके घिसने व टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से नहीं डरते। यह घिसे अर्थात् क्षीण हो तो हो, टूटे अर्थात् मरे तो मरे यह है ही किसलिए? जब तक मरम्मत के योग्य है अर्थात् शान्ति के काम में कुछ सहायता के योग्य है तब तक इस कर-करके, इसे भोजनादि आवश्यक पदार्थ दे-देकर इससे अधिक से अधिक काम लेना। जिस दिन मरम्मत के योग्य नहीं रहेगा अर्थात् बुढ़ापे से अत्यन्त जर्जरित हो जायेगा, उस दिन इसे छोड़ देना अर्थात् समाधि-मरण धर लेना (देखो अधिकार ४७)। नया शरीर मिल जायेगा, फिर उससे पुन: वही शान्ति का माल तैयार करने का धन्धा करना, कारखाना बन्द न होने देना । यह है योगी का तप से प्रयोजन, शरीर होने का यथार्थ फल। ५. मानस तप-तप का प्रकरण चलता है अर्थात् उन संस्कारों के विनाश की या निर्जरा की बात चलती है जो कि मन्दिर से निकलकर गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करते ही मेरे अन्दर मेरी बिना इच्छा के कुछ ऐसे विकल्प उत्पन्न कर देते हैं जिनमें फँस कर मैं व्याकुल हो उठता हूँ। इस रागात्मक वातावरणरूपी पवन को प्राप्त होकर संस्कार भड़क उठते हैं और मेरे अन्दर चिन्ताओं की दाह उत्पन्न करके मझे भस्म करने लगते हैं। धन्य है आज का अवसर यह तो खबर चली कि गृहस्थी में उठने वाले विकल्प भी कुछ हैं, जिन्हें मैं नहीं चाहता; और कोई उपाय हो तो हर मूल्य पर इनसे बचने को तैयार हूँ। इससे पहले अज्ञानवश या बुद्धि के किसी विकारवश मुझे इस दाह में भी कुछ मिठास सी ही प्रतीत होती थी और किसी मूल्य पर भी मैं इसको छोड़ना नहीं चाहता था। एक महान् अन्तर पड़ गया है आज मेरे अभिप्राय में, चूम ले इस अभिप्राय को, बहुमान प्रकट कर इसके प्रति, हर प्रकार रक्षा कर इसकी। यहाँ अनेकों चोर हैं इस अभिप्राय के, इस जिज्ञासा के, देख कहीं निकल न जाए तेरी तिजोरी से यह, तीन लोक की सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान 'जिज्ञासा'। __ यह सब किसका प्रसाद है ? कहाँ से आई शान्ति मेरे अन्दर ? यह सब है उन गुरुओं का प्रसाद, उस वीतराग वाणी का प्रसाद, जिनकी उपासना कि मैं पहले कर चुका हूँ। कितना महान् फल मिला है मुझे उस उपासना का, बिल्कुल प्रत्यक्ष तथा आज ही, कल की प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं। यह है उस निर्जरा का प्रताप जो संवर के साथ-साथ धीमे-धीमे हुई है। गुरुओं का प्रसाद प्राप्त करके आज मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा। अत्यन्त मूल्यवान इस शान्ति की जिज्ञासा को प्राप्त करके मुझसे अधिक धनवान कौन होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy