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________________ २९. तप २०१ २. भय - निवृत्ति किया जाता है, और वहाँ जाकर भी इस बात की सावधानी रखी जाती है कि शान्ति से विचलित न होने पाऊँ । कदाचित् अन्तरंग में क्षोभ प्रकट होने भी लगे तो उसे अन्दर में ही दबाने का प्रयत्न किया जाता है और इस प्रकार अभ्यास करते हुए एक समय वह आता है कि स्वत: कभी ऐसे प्रतिकूल अवसर आ पड़ें तो शान्ति निर्बाध रहे, मस्तक पर बल न पड़े, मुस्कराहट भंग न हो। बस तब जानो कि प्रतिकूल संस्कार टूट चुका है। इसी प्रकार सर्व जाति के संस्कारों के साथ युद्ध करके बलपूर्वक उनको प्रलय करने का नाम 'तप' है । २. भय - निवृत्ति — तप शब्द सुनकर कुछ भय सा लगता है, 'मुझे तप करना पड़ेगा' यह बात सुनना भी मैं सहन नहीं कर सकता, क्योंकि कुछ ऐसा विश्वास है कि तप करने में बड़ी भारी पीड़ा होती होगी, बड़ी वेदना होती होगी । महीनों के उपवासों द्वारा शरीर को कृश करने वाले योगियों की दशा को देखकर मेरा हृदय काँप उठता है और पुकार उठता है कि बड़ा कठिन है यह मार्ग, असिधारा के समान, मुझसे न चलेगा। इस प्रकार घबराकर इस दिशा की ओर लखाने का भी साहस नहीं होता । परन्तु भूलता है प्रभु ! वास्तव में ऐसी बात है ही नहीं । तप में पीड़ा होती ही नहीं, इसमें है शान्ति, आह्लाद और उल्लास। पहले कहे अनुसार (देखो साधना अधिकार) तप में भी दो क्रियायें बराबर चलती हैं- एक अन्तरंग क्रिया और दूसरी बाह्य क्रिया । अंतरंग क्रिया है अपने उपयोग का शान्ति के प्रति झुकाव, शान्ति में प्रतपन, इच्छाओं व विकल्पों का दमन, चिन्ताओं से मुक्ति ; और बाह्य क्रिया है शारीरिक पीड़ा का सहना । तेरे उपरोक्त भय का कारण यही है कि तूने केवल बाह्य क्रिया देखी है, अन्तरंग नहीं । वास्तव में उपयोगात्मक अन्तरंग क्रिया के बिना बाह्य-क्रिया निरर्थक हुआ करती है। पीड़ा को अनुभव करने वाला उपयोग ही है, और उपयोग एक समय में दो दिशाओं में काम कर नहीं सकता । इसलिए यदि उपयोग अन्तरंग - शान्ति में केन्द्रित कर दिया जाय तो बताओ पीड़ा का अनुभव कौन करेगा और पीड़ा किसे होगी ? जिस प्रकार बुखार हो जाने पर यदि रेडियो सुनने में उपयोग लगा दें तो बुखार का पता नहीं चलता, जिस प्रकार अपने शत्रु-दल को पीछे धकेलने में तत्पर बराबर उसकी क्षति करने वाला योद्धा रणक्षेत्र में कदाचित् अपने शरीर में लगे घाव की पीड़ा का वेदन नहीं करता, उसी प्रकार शान्ति के आह्लाद में केन्द्रित कर दिया है। उपयोग जिसने तथा बराबर संस्कारों की क्षति करने वाले योगी को बाहर की शारीरिक बाधाओं का पता नही चलता, मानो कुछ हो ही नहीं रहा है। तप का प्रयोजन है संस्कारों के साथ युद्ध ठानकर उनका मूलोच्छेद करना । वह दो प्रकार का होता है, बाह्य और अभ्यन्तर । बाह्य तप से उन संस्कारों का उच्छेद होता है जोकि शारीरिक पीड़ायें आ पड़ने पर मुझे शान्ति तथा समता से च्युत कर देते हैं, और अभ्यन्तर तप से उन संस्कारों का उच्छेद होता है जोकि मेरे अन्तरंग में बराबर इच्छाओं तथा कषायों के रूप में जागृत होकर मुझे विविध प्रकार के अपराध करने के प्रति नियोजित करते रहते हैं । इसलिए बाह्य-तप में कुछ ऐसी क्रियायें की जाती हैं जिनसे शरीर को पीड़ा हो और अन्तरंग - तप में कुछ ऐसी भावनायें की जाती हैं जिनसे मेरी इच्छाओं तथा कषायों का शमन हो इनका विस्तार तो आगे 'उत्तम तप' वाले ४० 'अधिकार में किया जायेगा, 'परन्तु यहाँ इतना बताना इष्ट है कि ये दोनों ही प्रकार के तप साधक अपनी शक्ति के अनुसार करता है । भले तुझ में आज इतनी शक्ति न हो कि देहपीड़ाकारी बाह्य-तपों को तू कर सके, परन्तु अभ्यन्तर- तप करने की शक्ति तो अब भी तुझ में है ही । क्या हृदय में भावनाएं उत्पन्न करने से कुछ पीड़ा होती है तुझे ? बाह्य तप भी तू सर्वथा न कर सके, ऐसा नहीं है। कभी-कभी अनशन या उपवास तो अब भी करता ही है तू । इतना ही क्यों, अपने दैनिक जीवन में नित्य तप किये जा रहा है तू, और विकट से विकट किये जा रहा है तू । दर्शन-खण्ड के 'चारित्र' वाले प्रकरण में तेरे वर्तमान व्याकुल जीवन का चित्रण किया गया है (देखो ५.४) । क्या वह कुछ कम तप है ? उसके अरिरिक्त भी देख, विद्यार्थी जीवन में विद्योपार्जन की गृद्धतावश और गृहस्थ जीवन में धनोपार्जन की गृद्धतावश अथवा स्त्री पुत्रादि कौटुम्बिक व्यक्तियों को अधिकाधिक सुखी देखने की गृद्धतावश, क्या-क्या नहीं सह रहा है तू ? परीक्षा के अवसर पर विद्यार्थी को और त्यौहार के अवसर पर व्यापारी को न रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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