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________________ २४. गुरु-उपासना १५२ २. गुरु कौन गुरु-परीक्षा की बात कहने वाले के पास बुद्धि है हृदय नहीं । बुद्धिगत थोड़े से ज्ञान के कारण जिसका हृदय अभिमान से ढक गया है उसे इस जगत में जब अपने से बड़ा कोई दिखाई ही नहीं देता तो वह परीक्षा किस की करेगा? वास्तव में हृदय-लोक में शिष्यत्व का उदय हुये बिना गुरु प्राप्ति सम्भव नहीं। इसलिये परीक्षा अपनी ही करनी है किसी दूसरे की नहीं । हृदय में शिष्यत्व जागृत करें, गुरु तुझे स्वयं प्राप्त हो जायेंगे। __ यद्यपि गुरु के सम्बन्ध में भी देव की भांति निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक ही गुरु हैं, क्योंकि जिससे अपने जीवन के लिये कोई भी हित की बात सीखने को मिले वही गुरु है । व्यक्ति का हित अपनी दृष्टि में वही होता है जिससे कि उसका जीवन सुखमय बने । इसलिये एक जुआरी का गुरु जुआरी ही हो सकता है, चोर का चोर, पहलवान का पहलवान और दुकानदार का दुकानदार । परन्तु यहाँ बात है पारमार्थिक हित की, शान्ति-प्राप्ति की, जीवन को बाह्य जगत की बाधाओं से बचाकर भीतर की ओर उन्मुख करने की । अत: आओ किसी ऐसे गुरु की खोज करें जिससे कि मेरे इस प्रयोजन की सिद्धि हो, जो कि इस दिशा में मेरा पथ-प्रदर्शन कर सकें। __ कहाँ खोजें, भीतर या बाहर में ? चलो पहले भीतर ही खोजें । और ये रहे वे ।अरे भाई ! उधर नहीं इधर,अपने भीतर । नहीं दिखाई दिये? भैया ! कुछ और भीतर चल, अभी तो तू इन्द्रियों में तथा मन और बुद्धि में ही अटका है । यहाँ नहीं हैं वे । इसके भी भीतर, और भीतर, हृदय की अन्तस्तम गुहा में, जहाँ न पहुँच सकती है मन की कल्पना और न बुद्धि की तर्कणा, केवल प्रेम ही प्रेम है जहाँ । देख कितने मधुर हैं ये और कितने हितैषी, माता की भांति । परम-माता हैं ये। कितनी सुखद है इनकी प्यार भरी गोद, इनकी चरण-शरण । हर-क्षण मेरे साथ रहते हैं ये, मेरी अंगुली पकड़कर धीरे-धीरे चलाते हैं ये, धीरे-धीरे चढ़ाते हैं ये साधना के क्रमोत्रत सोपानों पर । सदा मेरे आगे-आगे चलकर मार्ग दर्शाते हैं ये, इस मार्ग के प्रत्येक कण्टक से बचाते हैं ये । बाह्य जगत की ओर देखने से चित्त में राग द्वेष उत्पन्न हआ नहीं कि इन्होंने तुरन्त घूरकर देखा नहीं, कोई भी गलत कार्य हुआ नहीं कि तुरन्त प्यार भरा तमाचा इन्होंने मेरे गाल पर जमाया नहीं, वचन अपने पथ से बहका नहीं कि तुरन्त इन्होंने जिह्वा पकड़ी नहीं । और इस प्रकार बराबर देखते रहते हैं ये मुझे। भले ही सो जाऊँ मैं, पर एक क्षण को भी सोते नहीं थे। कोई भी बात छिपी नहीं है मेरे मन की इन से । जगत की आँखों में धल झोंक सकता हूँ मैं परन्त मजाल कि इन्हें धोखा दे जाय कोई । मेरी सभी चालाकियों को पहचानते है ये, जीवन के सर्व दोषों को दूर करने के लिये, सर्व अपराधों से मेरी रक्षा करने के लिये, मेरे मन का मैल धोने के लिये, पग-पग पर घूरते रहते हैं ये मुझको, बात-बात में घुड़कते रहते हैं ये मुझको, तमाचा लगाते रहते हैं ये मुझको । जैसा अपराध वैसा ही दण्ड । कभी पश्चाताप मात्र, कभी आत्म-निन्दन, कभी गर्हण, कभी निज-दोषालोचन, और कभी-कभी रूदन व क्रन्दन । दोष को त्यागकर जब पुन: लौट आता हूँ मैं अपने भीतर, इन परम गुरुदेव के चरणों में तो प्यार से गले लगा लेते हैं ये मुझे, मुख चूम-चूमकर मदहोश कर देते हैं ये मुझे, और सो जाता हूँ मै विश्रान्त, इनकी प्यार भरी गोद में । यही हैं मेरे अभ्यन्तर-गुरु, परम गुरु, पारमार्थिक-गुरु, जिसे अन्तर्ध्वनि नाम से अभिहित किया गया है पहले। ___ अब आइए बाहर में भी देखें । जगत का जड़ या चेतन प्रत्येक पदार्थ दे रहा है मुझे बड़े-बड़े उपदेश । सारी रात ग्राहक की प्रतीक्षा में बिता देने पर प्रात: निराशा की गोद में सो जाती है वेश्या, मुझे यह उपदेश देने के लिये कि निराशा सन्तोष की जननी है । देखो रोटी का टुकड़ा, पञ्जों में दबाए उड़ी जा रही है यह चील और इधर वह देखो अनेकों चीलें झपट पड़ी उस पर, रोटी का टुकड़ा पजे से छूटकर गिर गया नीचे और लड़ाई हो गई बन्द । उपदेश दे दिया इसने हम सबको कि परिग्रह दुख की खान है । यह देखो दाल धोकर उससे छिलका जुदा करने वाली यह कहारिन भी उपदेश दे रही है मुझे कि भगवान आत्मा शरीर से पृथक् हैं । और इस प्रकार कण-कण गुरु है इस विश्व का, यदि कोई सुन सके इनका उपदेश तो । परन्तु इतनी योग्यता वाले दत्तात्रेय या मुनि शिवभूति हैं ही कितने इस लोक में? अत: आओ खोजें व्यवहारिक क्षेत्र में । यहाँ भी हैं अनेकों गुरु, पूर्वोक्त अन्तर्गुरु की प्रकृति वाले, मेरे पथों के कण्टक हटाने वाले, मुझे अपराधों से बचाने वाले, दिव्य उपदेशों द्वारा मुझे ऊपर उठाने वाले, ज्योतिर्लोक के प्रति मुझे क्रमोन्नत सोपानों पर चढ़ाने वाले । अन्तर्गुरु थे निराकार और ये सब हैं साकार । संस्कारों की मायावी वकालत के धोखे में आकर अनेकों बार चूक कर जाता था मैं । अन्तर्ध्वनि की बात को समझ बैठता था संस्कार की और संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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