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________________ १२. नियतिवाद ७३ ८. सर्वाङ्गीण मैत्री तो सप्त भंग, सात तत्त्व, नव पदार्थ, इन सबकी स्वीकृति को एकान्त बताया गया है। तू यदि पुरुषार्थ या संयोग व निमित्त के गान गाता है तो वहाँ उनकी स्वीकृति को भी मिथ्यात्व कहा गया है । वहाँ तो स्वभाव की स्वीकृति को भी मिथ्यात्व कहा है। जैनागमका कौन-सा ऐसा तत्त्व है जिसे वहाँ मिथ्यात्व न कहा गया हो । यदि उस कथन पर से नियति का निषेध करना है तो अन्य सर्व वादों व अंगों का भी निषेध करना पड़ेगा। और यदि ऐसा कर दे तो रह ही क्या गया ? क्या सर्व शून्य की स्वीकृति को सम्यक्त्व कहेगा ? भाई ! वहाँ नियति का निषेध नहीं किया है बल्कि सप्त तत्त्वों आदि की भाँति उसको भी स्वीकार करने के लिये कहा है । वहाँ तो यह बताया है कि जिस प्रकार निमित्त व पुरुषार्थ से हीन नियति की स्वीकृति एकान्त है उसी प्रकार नियति से हीन पुरुषार्थ व निमित्त आदि की स्वीकृति भी मिथ्यात्व है । क्योंकि सर्व कथन कर देने के पश्चात् आचार्य स्वयं वहाँ एक गाथा कह रहे हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि, “एकान्त मिथ्यात्व के ये ३६३ भेद कह दिये गये, पर ये इतने ही नहीं हैं, असंख्यात हैं, क्योंकि जितने वचन विकल्प हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही एकान्त हैं । अन्य मतवादियों के वही वचन मिथ्या हैं क्योंकि वे 'सर्वथा' शब्द के साथ वर्तते हैं, परन्तु जैन या अनेकान्त वादियों के वही वचन सम्यक् हैं क्योंकि वे 'कथञ्चित्' पद से चिन्हित हैं ।" इस गाथा के अनुसार 'नियति' का सर्वथा निषेध करके शेष बचे ३६२ की स्वीकृति भी एकान्त कहलायेगी । किसी न किसी प्रकार इन ३६३ तथा इनके अतिरक्ति अन्य अनेक बातों को युगपत् स्वीकार करना ही वास्तव में व्यापक-अनेकान्त-दृष्टि है और वही सम्यक्त्व है । अब तू ही निर्णय करले कि यहाँ नियति का निषेध कराया गया है। या स्वीकार ? ८. सर्वाङ्गीण मैत्री - प्रश्न समाप्त हो गए, परन्तु हृदय अब भी समाहित नहीं हुआ । नियति का बल स्वीकार कर लेने पर वस्तु परतन्त्र सी होती प्रतीत होने लगती है। सो भाई ! बड़ी मुश्किल की बात है। स्वभाव को कहने जाता हूँ तो वस्तु स्वभाव के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है, निमित्त को कहने जाता हूँ तो वस्तु निमित्त के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है और नियति को कहनें जाता हूँ तो वस्तु नियति के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है, समाधान करूँ तो कैसे करूँ ? भैया ! वस्तु का तथा उसकी कार्य-व्यवस्था का स्वरूप बड़ा जटिल है। वास्तव में जो कुछ भी एक समय में कहा जाता है, वस्तु-व्यवस्था वैसी है नहीं। वह है इन पाँचों समवायों का एक अखण्ड-पिण्ड । केवल ज्ञानधारा ही समर्थ है उसे देखने के लिये, जिसका उल्लेख निमित्तोपादान मैत्री में पहले किया जा चुका है । 1 किसी भी कार्य के लिये अनेकों कारणकूटों की आवश्यकता होती है । यहाँ तो केवल पाँच ही का उल्लेख किया है, उसमें तो अनन्तों अंग एक ही समय पड़े हैं। जब तक वस्तु को पढ़ने का प्रयत्न न करेगा प्रश्न उठते ही रहेगें । यद्यपि सभी का तर्कपूर्ण उत्तर उपलब्ध है, तदपि स्थानाभाव के कारण सबका उल्लेख यहाँ किया जाना सम्भव नहीं है । सभी बातों को युगपत् देखे तो स्वतः सबका समाधान प्राप्त हो जाय। किसी एक मशीन के पुर्जे यथा स्थान जड़े रहते हुए भी यदि उसमें से एक छोटी सी कील निकाल ली जाए तो सब घोटमटाला हो जाए। भले ही पैसे की दृष्टि से उसका मूल्य न के बराबर हो, परन्तु मशीन की कार्य-व्यवस्था में उसका भी उतना ही मूल्य है जितना कि किसी बड़ी भारी गरी का। इसी प्रकार विश्व की सहज कार्य-व्यवस्था में सभी अंगों या समवायों का समान मूल्य है, न किसी का कम न अधिक । भले ही तत्त्व - दृष्टा की दृष्टि में निमित्त का कोई मूल्य न हो परन्तु वस्तु की कार्य-व्यवस्था में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, और इसी प्रकार अन्य अंगों की भी । अतः शब्दों की खेंचतान छोड़कर साक्षी - भाव से इस बाह्याभ्यन्तर जगत का तमाशा देख | इन पाँचों समवायों में वस्तु का 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' स्वभाव तो त्रिकाल सत् है और इसलिये उसमें कुछ भी किये जाने का प्रश्न नहीं । नियति कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है । न वह कोई द्रव्य है, न किसी द्रव्य का कोई गुण है और न किसी की कोई पर्याय । वह है उस काल का नाम जिसमें कि कोई विवक्षित कार्य सिद्ध होना होता है। इस प्रकार भवितव्य भी है मात्र उस कार्य का नाम जो कि उस काल में सिद्ध होना होता है। अतः इन दोनों अंगों में भी व्यक्ति को करने के लिये कुछ नहीं है। अब रह गए निमित्त तथा पुरुषार्थ । तहाँ निमित्त के रूप में यह गुरुवाणी तथा तेरे अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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