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________________ ( ७२ ) वास्तुमारे देवता को और इनके ऊपर बत्तीस कोठे में 'इन्द्रों को क्रमशः स्थापित करना चाहिये । तदनन्तर अपने २ देवों के मंत्राक्षर पूर्वक गंध, पुष्प, अक्षत, दीप, धूप, फल और नैवेद्य आदि चढ़ा कर पूजन करना चाहिये । दश दिग्पाल और चौबीस यक्षों की भी यथाविधि पूजा करना चाहिये । जिनबिंब के ऊपर अभिषेक और अष्टप्रकारी पूजा करना चाहिये । द्वार कोने स्तंभ मादि किस प्रकार रखना चाहिये यह बतलाते हैंबारं बारस्स समं ग्रह बार बारमझि कायव्वं । श्रह वज्जिऊण बारं कीरइ बारं तहालं च ॥१२६॥ मुख्य द्वार के बराबर दूसरे सब द्वार बनाना चाहिये अर्थात् हरएक द्वार के उत्तरंग समसूत्र में रखना या मुख्य द्वार के मध्य में आजाय ऐसा सकड़ा दरवाजा बनाना चाहिये । यदि मुख्य द्वार को छोड़ कर एक तरफ खिड़की बनाई जाय तो वह अपनी इच्छानुसार बना सकता है ॥१२६। । कूणं कूणस्त समं श्रालय पालं च कीलए कीलं। थंभे थंभं कुजा ग्रह वेहं वजि कायव्वा ॥१२७॥ कोने के बराबर कोना, आले के बराबर आला, खूटे के बराबर खूटा और खंभे के बराबर खंभा ये सब वेध को छोड़ कर रखना चाहिये ॥१२७।। श्रालयसिरम्मि कीला थंभो बारुवरि बारु थंभुवरे । बारद्विवार समखण विसमा थंभा महाअसुहा ॥१२८॥ आले के ऊपर कीला (खूटा ), द्वार के ऊपर स्तंभ, स्तंभ के ऊपर द्वार, द्वार के ऊपर दो द्वार, समान खंड और विषम स्तंभ ये सब बड़े अशुभ कारक हैं ।।१२८॥ थंभहीणं न कायव्वं पासायं मठमंदिरं । कूणकक्खंतरेऽवस्सं देयं थमं पयत्तयो ॥१२॥ दिगम्बराचार्य कृत प्रतिष्ठा पाठ में बत्तीस इन्द्रों की पूजन का अधिकार है। * 'गढ़' पाठान्तरे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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