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________________ परिशिष्ट २२३ 2. नैयायिकानां कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमौ विशिष्टौ स्तः। (क) कालात्ययापदिष्ट:-प्रत्यक्षागमविरुद्धपक्षवृत्तिः कालात्ययापदिष्टः, यथा-अनुष्णोऽग्निः कृत कत्वाद्, घटवत्। (ख) प्रकरणसमः प्रकरणपक्षे प्रतिपक्षे च तुल्य: प्रकरणसमः, यथा- अनित्यः शब्दः नित्यधर्मानुपलब्धेः, घटवत् । इत्युक्ते परः प्राह-नित्यः शब्दः, अनित्यधर्मानुपलब्धेः आकाशवत् । नैयायिक दर्शन में कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम-ये दो हेत्वाभास अतिरिक्त माने गए हैं - कालात्ययापदिष्ट- जो हेतु प्रत्यक्ष और आगम से विरुद्धपक्ष में प्रयुक्त होता है वह कालत्ययापदिष्ट है, जैसे - अग्नि अनुष्ण है, क्योंकि वह कृतक है, जैसे- घड़ा। प्रकरणसम-जो हेतु प्रस्तुत पक्ष और प्रतिपक्ष में समानरूप से विद्यमान हो वह प्रकरणसम है, जैसे - शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें नित्य धर्म अनुपलब्ध है, जैसे-घड़ा। इस हेतु के उपस्थित किए जाने पर प्रतिवादी कहता है -शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें अनित्य धर्म अनुपलब्ध है, जैसे - आकाश। न्या. प्र.- कालात्ययापदिष्ट : यो हेतुः प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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