SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( " ) छ० – मुझे लौकिक धन की ज़रूरत नहीं । मुझे मुक्तिपद की चाबी चाहिए । केवल पन्द्रह वर्ष के बालक के इस चातुर्य पूर्ण उत्तर को सुनकर आत्मारामजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए । आप को इस भव्यात्मा की वाणी ने अपनी ओर खींच लिया । इनकी भव्यता का अच्छा आभास मिला । उज्ज्वल भविष्य और तीव्र बुद्धि का भी खासा परिचय हुआ । आपने कहा- "भाई ! अवसर आने दो; बड़े लोगों की आज्ञा लो; तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी ।" यथा समय आचार्य महाराज का बड़ौदे से विहार हुआ । आप भी कुछ दूर तक साथ गए और दूसरे दिन घर लौटे । प्रश्न था, अब बड़े भाई की आज्ञा प्राप्त करने का । उनसे कहने में आप हिचकिचाते थे । आप अपने बड़े भाई का बड़ा सम्मान करते थे। साथ ही कुछ डरते भी थे। इस तरह, क्या हो और क्या न हो ? यही चिन्ता थी । श्री आत्मारामजी महाराज कुछ मुनिराजों के साथ विहार कर गये थे, परन्तु अपने शिष्य मुनिराज श्री हर्षविजयजी महाराज को वहां, कुछ साधुओं के अस्वस्थ होने के कारण, छोड़ गये थे। आप उनके पास भी प्रति दिन व्याख्यान सुनने जाते थे। मुनि श्री हर्षक्जियजी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002670
Book TitleKalikal Kalpataru Vijay Vallabhsuriji ka Sankshipta Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
PublisherParshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
Publication Year1938
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy