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________________ दिव्य जीवन ६१ माता-पुत्रका स्नेह तो जगतप्रसिद्ध है, फिर मैं यह क्या देख रहा हूं ? अब मेरा वचन मानकर इस वैमनस्यको भूल जाओ और अभी ही दोनों प्रेमसे मिलकर गुरुआज्ञा का पालन करो । प्रेममें शांतिका वास है और शान्तिसे आत्मोद्धार होता है । दोनों प्रेमसे मिलकर अपना और समाजका कल्याण करो। " गुरुदेव वाणी औषधि तुल्य थी । उसने उनके हृदयोंमें प्रवेश करके उनमें प्रेमकी धारा बहा दी । उसने मां-बेटे के अन्तःकरणमें सोते हुए स्नेहभावको जगा दिया। मांने बेटा कहकर हाथ पसारे और बेटेने मां कहकर मांकी छाती मुंह छिपा लिया । यह अद्वितीय दृश्य था । दोनोंकी आंखों से गंगाधारा बहने लगी । इस प्रकार गुरुदेवने मां-बेटे दोनोंसे गोचरी ( भिक्षा ) लेकर प्रेमपूर्वक विदा ली । सारे शहर में यह समाचार फैल गया कि एक संत पुरुषके प्रयत्नसे मां-बेटेका वैमनस्य मिट गया है । सच है -- पारस परसि कुधातु सुहाई ।' (पारसमणि लोहेको भी सोना बना देती है ।) ऐसे थे परोपकारी गुरुदेव । वे स्नेहके स्पर्शसे मानवमनको जीत लेते थे । १४ अमर ज्योति मीत है । यह विदा वेला कि मन के गा चलो आनन्द के अब गीत हे । झर रहा आलोक है आकाश में । झर रहा सौन्दर्य है, रे में ॥ राह Jain Education International ―――― - गीताज्जलि आचार्यदेवका जीवनदीप सितंबर २२, सन् १९५४की रात्रिमें लगभग २- ३० बजे बम्बई में बुझ गया । परन्तु वह दीप बुझा नहीं । उसका दिव्य प्रकाश अमर है । वह प्रकाश मनुष्य के जीवनमें चमक रहा है, समाजके प्रागंण में उसकी दिव्य आभा छिटकी हुई है। उसने मनुष्यमें मनुष्यता जगाई, मुरझाई हुई समाजकी फुलवारीको अपने सेवाजलसे सींचकर हरीभरी बनाई तथा जो पीड़ित, दलित एवं शोषित थे, उनको अपने स्नेहकी शीतल छाया में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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