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________________ ४६ दिव्य जीवन देवीकी कृपा नहीं है ? मेरे विचारमें समाजमें धनकी कोई कमी नहीं, साधनोंका कोई अभाव नहीं, एक वस्तु की कमी है-- वह है समाजसेवाकी भावनाकी। गुरुदेवने विद्यार्थियोंको चरित्रवान बननेका उपदेश दिया। अपने एक भाषणमें उन्होंने कहा था : “विद्याध्ययनसे तुममें मानवसेवा, देशसेवा एवं करुणाके भाव उत्पन्न हो। तुम्हारे खान-पानमें शुद्धता हो, तुम्हारी वाणीमें संयम हो तथा तुम्हारे आचरणमें मानवता और प्रेम हो।" श्री महावीर जैनविद्यालयके विद्यार्थियोंको संबोधित करते हुए गुरुदेवने पुस्तकालयोंके उपयोगका उल्लेख किया था : “तुम्हारे पुस्तकालयमें जो ज्ञानका भंडार है उससे प्रेरणा प्राप्त करो। तुम उस ज्ञानसे अपने चरित्रका गठन करो और ऐसा जीवन बिताओ जिससे समाज और समस्त देशका कल्याण हो।" गुरुदेवके विविध प्रवचनोंसे यह स्पष्ट है कि वे विद्यार्थीको राष्ट्रके सुनागरिकके रूप में देखना चाहते थे। सुनागरिकमें चरित्रबल रहता है। आज चरित्रका अभाव सर्वत्र दिखाई दे रहा है, फलस्वरूप देशमें विषमता, भ्रष्टाचार एवं हिंसा पनप रही है। राष्ट्रीय चरित्रका अभाव अवनतिका लक्षण है। गुरुदेवने विद्यार्थीको राष्ट्रके खजानेका दिव्य हीरा कहा। दिव्य' हीरेकी कांति समाज और देशमें उजाला करती है। हीरेको तराशनेसे उसकी कांति फूटती है। शिक्षासे यह दिव्य कांति निकलती है। इसीलिये गुरुदेवने शिक्षाप्रचारके लिए अपने जीवनको समर्पित कर दिया। शिक्षाके प्रति उनकी आस्था इन शब्दोंमें अभिव्यक्त हुई है : " शिक्षा मुरझाई हुई समाजवाटिकाको खिलानेवाला बसन्त है।” ६. श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बईकी स्थापना सन् १९१५में हुई थी। बम्बईके अतिरिक्त इसकी अहमदाबाद, पूना, बडौदा, वल्लभविद्यानगर (आणंद) तथा भावनगरमें शाखायें सुचारु रूपसे चल रही हैं । इन सुव्यवस्थित छात्रालयोंमें समाजके निर्धन एवं प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थियोंको लोन-सहायता प्रदान कर प्रवेश दिया जाता है। इनमें रहकर छात्र संबद्ध विश्वविद्यालयोंमें उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। इनमें पुस्तकालयोंको भी सुव्यवस्था है। महावीर जैन विद्यालय बम्बईके तत्त्वावधानमें आगमसूत्रोंका संशोधन एवं संपादनकार्य भी सम्पन्न हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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