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________________ कहना न होगा कि नैगम शब्द 'निगम' से बना है जो निगम वैशालीमें थे और जिनके उल्लेख सिक्कोंमें भी मिले हैं। 'निगम' समान कारोबार करनेवालोंकी श्रेणी विशेष है। उसमें एक प्रकारकी एकता रहती है और सब स्थूल व्यवहार एक-सा चलता है । उसी 'निगम' का भाव लेकर उसके ऊपरसे नैगम शब्दके द्वारा जैन परम्पराने एक ऐसी दृष्टिका सूचन किया है जो समाजमें स्थूल होती है और जिसके आधारपर जीवन व्यवहार चलता है। नैगमके बाद संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ऐसे छह शब्दोंके द्वारा यह अांशिक विचारसरणियोंका सूचन अाता है। मेरी रायमें उक्त छहों दृष्टियाँ यद्यपि तत्त्व-ज्ञानसे संबन्ध रखती हैं पर वे मूलतः उस समयके राज्य व्यवहार और सामाजिक व्यावहारिक अाधारपर फलित की गई हैं। इतना ही नहीं बल्कि संग्रह व्यवहारादि ऊपर सूचित शब्द भी तत्कालीन भाषा प्रयोगोंसे लिए हैं। अनेक गण मिलकर राज्य व्यवस्था या समाज व्यवस्था करते थे जो एक प्रकारका समुदाय या संग्रह होता था और जिसमें भेदमें अमेद दृष्टिका प्राधान्य रहता था। तत्त्वज्ञानके संग्रह नयके अर्थमें भी वही भाव है। व्यवहार चाहे राजकीय हो या सामाजिक वह जुदे-जुदे व्यक्ति या दलके द्वारा ही सिद्ध होता है। तत्त्वज्ञानके व्यवहार नयमें भी भेद अर्थात् विभाजनका ही भाव मुख्य है। हम वैशालीमें पाए गए सिक्कोंसे जानते हैं कि 'व्यावहारिक' और 'विनिश्चय महामात्य' की तरह 'सूत्रधार' भी एक पद था । मेरे ख्यालसे सूत्रधारका काम वही होना चाहिए जो जैन तत्वज्ञानके ऋजुसूत्र नय शब्दसे लक्षित होता है। ऋजुसूत्रनयका अर्थ है-आगे पीछेकी गली कुंजीमें न जाकर केवल वर्तमानका ही विचार करना । संभव है सूत्रधारका काम भी वैसा ही कुछ रहा हो जो उपस्थित समस्याओंको तुरन्त निपटाए । हरेक समाजमें, सम्प्रदायमें और राज्यमें भी प्रसंग विशेषपर शब्द अर्थात् प्राज्ञाको ही प्राधान्य देना पड़ता है। जब अन्य प्रकारसे मामला सुलझता न हो तब किसी एकका शब्द ही अन्तिम प्रमाण माना जाता है। शब्दके इस प्राधान्यका भाव अन्य रूपमें शब्दनयमें गर्भित है । बुद्धने खुद ही कहा है कि लिच्छवीगण पुराने रीतिरिवाजों अर्थात् रूढ़ियोंका श्रादर करते हैं। कोई भी समाज प्रचलित रूदियोंका सर्वथा उन्मूलन करके नहीं जी सकता। समभिरूढ़नयमें रूढिके अनुसरणका भाव तात्त्विक दृष्टिसे घटाया है। समाज, राज्य और धर्मकी व्यवहारगत और स्थूल विचारसरणी या व्यवस्था कुछ भी क्यों न हो पर उसमें सत्यकी पारमार्थिक दृष्टि न हो तो यह न जी सकती है, म प्रगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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