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________________ २१८ शास्त्रवार्तासमुच्चय क्रियाहीनाश्च यल्लोके दृश्यन्ते ज्ञानिनोऽपि हि । कृपायतनमन्येषां सुखसम्पद्विवर्जिताः ॥६७९॥ फिर संसार में देखा जाता है कि जो व्यक्ति ज्ञानसंपन्न होते हुए भी निष्क्रिय बने रहते हैं वे दूसरों की कृपा के सहारे जीते हैं तथा उन्हें न सुख प्राप्त होता है न सम्पत्ति । क्रियोपेताश्च तद्योगादुदग्रफलभावतः । मूर्खा अपि हि भूयांसो विपश्चित्स्वामिनोऽनघाः ॥६८०॥ दूसरी ओर, बहुतेरे मूर्ख किन्तु क्रियाशील व्यक्ति अपनी क्रिया के प्रताप से भारी सफलता प्राप्त करके ज्ञानियों के स्वामी बन जाते हैं और ऐसा करने में उन्हें पाप नहीं लगता । क्रियातिशययोगाच्च मुक्तिः केवलिनोऽपि हि । नान्यथा केवलित्वेऽपि तदसौ तन्निबन्धना ॥६८१॥ और केवल ज्ञान से संपन्न एक व्यक्ति को भी मोक्ष तब प्राप्त होती है जब उत्कृष्ट प्रकार की एक क्रियाविशेष (अर्थात् शैलेशीकरण) करे जबकि दूसरे किसी समय (अर्थात् उक्त क्रिया के अभाव में) उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होती भले ही वह केवल ज्ञान से संपन्न क्यों न हो; इससे सिद्ध होता है कि मोक्षप्राप्ति का कारण क्रिया है । टिप्पणी-प्रस्तुत वादी जैनों की इस मान्यता को अपने मत का आधार बना रहा है कि एक व्यक्ति का मोक्षप्राप्ति से ठीक पहले 'शैलेशी' नाम वाली समाधि लगाना अनिवार्य है। फलं ज्ञानक्रियायोगे सर्वमेवोपपद्यते । तयोरपि च तद्भावः परमार्थेन नान्यथा ॥६८२॥ (ज्ञानक्रियासमुच्चयवादियों का कहना है :) सभी फलों की प्राप्ति ज्ञान तथा क्रिया दोनों के उपस्थित रहने पर ही होती है यही मान्यता युक्तिसंगत है; और ज्ञान तथा क्रियाओं को भी ज्ञान तथा क्रिया तभी कहना चाहिए जबकि वे सचमुच फल को जन्म दे रहे हों न कि अन्य किसी समय । साध्यमर्थं परिज्ञाय यदि सम्यक् प्रवर्तते । ततस्तत् साधयत्येव तथा चाह बृहस्पतिः ॥६८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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