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________________ २१६ शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं च वस्तुनस्तत्त्वं हन्त ! शास्त्रादनिश्चितम् । तदभावे च सुव्यक्तं तदेतत्तुषखण्डनम् ॥६७१॥ इस प्रकार, प्रस्तुत वादी के मतानुसार शास्त्र वस्तुओं का स्वरूपनिश्चय न करा सकेंगे (क्योंकि शास्त्र शब्दात्मक हैं जबकि प्रस्तुत वादी के मतानुसार शब्दजन्य ज्ञान का विषय अवस्तुरूप है); और शास्त्रसमर्थन बिना किया गया वस्तु-स्वरूपविषयक सब तर्कवितर्क स्पष्ट ही भूसी को कूटने जैसा होगा । टिप्पणी-हरिभद्र की समझ है कि शास्त्रआधारित तत्त्वचिन्तन ही वस्तुतः किसी काम का है । बुद्धावर्णेऽपि चादोषः संस्तवेऽप्यगुणस्तथा । आह्वानाप्रतिपत्त्यादि शब्दार्थायोगतो ध्रुवम् ॥६७२॥ यदि यह माना जाएगा कि एक शब्द का उसके अर्थ के साथ कोई संबन्ध नहीं तो निश्चय ही यह भी मानना पड़ेगा कि बुद्ध की निन्दा करने में कोई दोष नहीं तथा उनकी प्रशंसा करने में कोई गुण नहीं; इसी प्रकार उस दशा में मानना पड़ेगा कि हमारे द्वारा पुकारे जाने पर भी कोई व्यक्ति न तो हमारी बात समझ पाएगा और न वैसा कोई दूसरा काम कर पाएगा (अर्थात् हमारे पास आना आदि काम कर पाएगा) । (२) ज्ञान तथा क्रिया के बीच प्राधान्य-अप्राधान्य का प्रश्न ज्ञानादेव नियोगेन सिद्धिमिच्छन्ति केचन । अन्ये क्रियात एवेति द्वाभ्यामन्ये विचक्षणाः ॥६७३॥ कुछ वादियों का कहना है कि कार्यसिद्धि नियमतः ज्ञान से ही होती है; कुछ दूसरों का यह कि कार्यसिद्धि नियमतः क्रिया से ही होती है, कुछ अन्य का यह कि कार्यसिद्धि नियमतः ज्ञान तथा क्रिया दोनों से होती है । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र फिर एक आचार शास्त्रीय चर्चा का प्रारंभ करते हैं । ज्ञानं हि फलदं पुंसां न क्रिया फलदा मता । . मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य फलप्राप्तेरसंभवात् ॥६७४॥ १. ख का पाठ : "तच्छुष्क्खं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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