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________________ २१४ शास्त्रवार्तासमुच्चय अर्थों का भी द्योतन करता है । टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र बौद्ध की इस शंका का उत्तर प्रारंभ करते हैं कि यदि एक शब्द का अपने द्वारा घोतित वस्तु के साथ कोई वास्तविक संबंध होता तो न तो एक शब्द अनेक वस्तुओं का द्योतन कर सकता था, न अनेक शब्द एक वस्तु का । अनन्तधर्मकं वस्तु तद्धर्मः कश्चिदेव च । वाच्यो न सर्व एवेति ततश्चैतन्न बाधकम् ॥६६५॥ एक वस्तु अनेक धर्मों वाली हुआ करती है जबकि उसके एक ही प्रकार के धर्मों का—न कि सब प्रकार के धर्मों का द्योतन एक शब्द किया करता है; इसका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत वादी की निम्नलिखित आपत्ति हमारे मत पर लागू नहीं होती । अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छब्दस्य ,गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षः न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥६६६॥ "एक वस्तु का इन्द्रियग्राह्य रूप एक प्रकार का होता है तथा शब्दग्राह्य रूप दूसरे प्रकार का; यही कारण है कि एक इन्द्रियशून्य व्यक्ति भी वस्तुओं के सम्बन्ध में शब्दजन्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है यद्यपि प्रत्यक्षजन्य ज्ञान नहीं। टिप्पणी-बौद्ध की मान्यता है कि इन्द्रियगोचर वस्तुएँ वास्तविक हुआ करती है तथा शब्दगोचर वस्तुएँ अवास्तविक; हरिभद्र की मान्यता हैं कि वस्तुओं का शब्दगोचर पहलू भी उतना ही वास्तविक हुआ करता है जितना कि उनका इन्द्रियगोचर पहलू । अन्यथा दाहसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥६६७॥ एक जलता हुआ व्यक्ति जलन से सम्बन्धित होते समय जलन का ज्ञान एक प्रकार से कर रहा होता है, एक व्यक्ति 'जलन' शब्द की सहायता से जलन का ज्ञान दूसरे प्रकार से कर रहा होता है ।" इन्द्रियग्राह्यतोऽन्योऽपि वाच्योऽसौ न च दाहकृत् । तथाप्रतीतितो भेदाभेदसिद्धयैव वस्तु नः ॥६६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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