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________________ २०७ ग्यारहवाँ स्तबक रखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शब्दों का विषय बौद्धिक (काल्पनिक) पदार्थ हुआ करते हैं (वास्तविक पदार्थ नहीं)। वाच्य इत्थमपोहस्तु न जाति: पारमार्थिकी । तदयोगाद् विना भेदं तदन्येभ्यस्तथाऽस्थितेः ॥६४९॥ __इस प्रकार एक शब्द का अर्थ 'अपोह' (अर्थात् 'अन्य से भेद') होना चाहिए न कि 'जाति' (अथवा 'सामान्य') नामवाला कोई वास्तविक पदार्थ; यह इसलिए कि तथाकथित 'जाति' के सम्बन्ध में कुछ भी युक्तिसंगत बात कर पाना हमारे लिए संभव नहीं और इसलिए कि एक प्रकारविशेष के व्यक्ति (=व्यक्तिभूत वस्तु) के एक दूसरे प्रकार के व्यक्ति से स्वभावतः भिन्न हुए बिना दो परस्पर भिन्न 'जातियाँ' भी इन व्यक्तियों में नहीं रह सकती (यह इसलिए कि एक जातिविशेष एक प्रकारविशेष के व्यक्तियों में रहती है तथा एक दूसरी जातिविशेष एक दूसरे प्रकारविशेष के व्यक्तियों इस बात की नियामक वस्तुस्थिति भी यही है कि इस पहली जाति के आधारभूत व्यक्ति इस दूसरी जाति के आधारभूत व्यक्तियों से स्वभावतः भिन्न हैं) । टिप्पणी-बौद्ध का कहना है कि जब हम किन्हीं अनेक वस्तुओं को एक नाम से पुकारते हैं तब इसका अर्थ इतना ही होता है कि ये वस्तुएँ उन सब वस्तुओं से भिन्न हैं जिन्हें हम इस नाम से नहीं पुकारते; दूसरी ओर, न्यायवैशेषिक दार्शनिकों का कहना है कि किन्हीं अनेक वस्तुओं के एक नाम से पुकारे जाने का अर्थ यह है कि इन वस्तुओं में कोई 'जाति' (नामान्तर 'सामान्य')—जिसकी कल्पना एक नित्य तथा सर्वव्यापक पदार्थ के रूप में की गई है-समान भाव से रह रही है । न्यायवैशेषिक मान्यता के विरुद्ध बौद्ध का कहना है कि जब सभी 'जातियाँ' नित्य तथा सर्वव्यापक हैं तब एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति से भिन्न रूप में देखने का हमारा आधार इन व्यक्तियों में रहनेवाली जातियाँ नहीं हो सकती ।। सति चास्मिन् किमन्येन शब्दात् तद्वत्प्रतीतितः । तदभावे न तद्वत्त्वं तद्भ्रान्तत्वात् तथा न किम् ॥६५०॥ जब एक वस्तु में 'अन्य से भेद' उपस्थित ही है तब उसमें ('जाति' १. क ख दोनों का पाठ : तथा स्थितेः । २. क का पाठ : तद्वान्त' ।. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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