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________________ दसवाँ स्तबक २०१ पर हम कल्पना कर सकते हैं कि चरित्रदोषों के सर्वथा क्षय की अवस्था कैसी होगी। और (हरिभद्र की दृष्टि में) चरित्रदोषों के सर्वथा क्षय की अवस्था ही सर्वज्ञता की अवस्था है । हृद्गताशेषसंशीतिनिर्णयादिप्रभावतः । तदात्वे वर्तमाने तु तद्व्यक्तार्थाविरोधतः ॥६३२॥ एक सर्वज्ञ व्यक्ति अपने समय में अपने श्रोताओं के हृदय की समस्त शंकाओं का निवारण करने में समर्थ होता था और उसकी इस सामर्थ्य से तथा उसकी ऐसी ही दूसरी सामर्यों से सिद्ध होता था कि वह व्यक्ति सर्वज्ञ हैं; दूसरी ओर, इस सर्वज्ञ व्यक्ति की कृति में कही गई बातें आज भी गलत होती नहीं पाई जाती और इससे आज यह सिद्ध होता है कि यह व्यक्ति सर्वज्ञ था । न चास्यादर्शनेऽप्यद्य साम्राज्यस्येव नास्तिता । संभवो न्याययुक्तस्तु पूर्वमेव निदर्शितः ॥६३३॥ किसी सर्वज्ञ व्यक्ति का दर्शन हमें आज न होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि एक सर्वज्ञ व्यक्ति का अस्तित्व ही असंभव हैं-उसी प्रकार जैसे किसी चक्रवर्तीराज्य का दर्शन हमें आज न होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि एक चक्रवर्तीराज्य का अस्तित्व ही असंभव है। और एक सर्वज्ञ व्यक्ति की संभावना युक्तिसंगत है यह बात हम पहले ही दिखा चुके । प्रातिभालोचनं तावदिदानीमप्यतीन्द्रिये । सुवैद्यसंयतादीनामविसंवादि दृश्यते ॥६३४॥ और जहाँ तक अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में प्रतिभाजन्य ज्ञान का संबंध है वह उत्तम वैद्य, आत्मसंयमी योगी आदि व्यक्तियों द्वारा आज भी यथार्थ भाव से प्राप्त किया जाता है । टिप्पणी-'प्रतिभा' की कल्पना एक ऐसे अलौकिक ज्ञानसाधन के रूप में की गई है जो विरले ही व्यक्तियों को प्राप्त होती है । हरिभद्र का कहना है कि जिस प्रकार ये वे व्यक्ति प्रतिभा की सहायता से इन उन अतीन्द्रिय पदार्थों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं उसी प्रकार एक सर्वज्ञ व्यक्ति प्रतिभा की सहायता से सभी अतीन्द्रिय पदार्थों की-वस्तुतः सभी पदार्थों की जानकारी प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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