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________________ शास्त्रवार्तासमुच्चय में लालिमा की अभिव्यक्ति करता है । तस्मान्न चाविशेषेण प्रतीतिरुपजायते । सङ्केतसव्यपेक्षत्वे स्वत एवेत्ययुक्तिमत् ॥६०८॥ अत: यह बात सच नहीं कि एक वैदिक वाक्य अपने अर्थ का ज्ञान अन्य कुछ की सहायता लिए बिना कराता है; और यदि माना जाए कि एक वैदिक वाक्य अपने शब्दों के संकेतित (=परंपरागत) अर्थ की सहायता से अपने अर्थ का ज्ञान कराता है तो यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि एक वैदिक वाक्य अपने अर्थ का ज्ञान स्वतः ही कराता है । साधुन वेति सङ्केतो न चाशङ्का निवर्तते । तद्वैचित्र्योपलब्धेश्च स्वाशयाभिनिवेशतः ॥६०९॥ फिर एक वैदिक वाक्य के सम्बन्ध में इस शंका का निवारण कभी नहीं होता कि इस वाक्य में आए शब्दों का अमुक परंपरागत अर्थ लिया जाए या नहीं; क्योंकि कभी कभी हम पाते हैं कि इस प्रकार के वाक्य में आए किसी शब्द को विभिन्न व्याख्याता विभिन्न अर्थ अपनी इच्छा से पहना देते हैं। व्याख्याऽप्यपौरुषेय्यस्य' मानाभावान्न सङ्गता । मिथो विरुद्धभावाच्च तत्साधुत्वाद्यनिश्चितेः ॥६१०॥ यह मानना युक्तिसंगत नहीं कि वैदिक वाक्यों की व्याख्या भी अपौरुषेय हो सकती है, क्योंकि ऐसी मान्यता के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं; दूसरे, विभिन्न वेदव्याख्याओं के परस्परविरोधी होने के कारण यह निश्चय करना संभव नहीं कि इनमें से कौन सी व्याख्या उचित आदि है और कौन सी नहीं । नान्यप्रमाणसंवादात् तत्साधुत्वविनिश्चयः ।। सोऽतीन्द्रिये न यन्न्याय्यस्तद्भावविरोधतः ॥६११॥ यह भी नहीं कहा जा सकता हि वह वेदव्याख्या उचित है जिसका समर्थन दूसरे प्रमाण करें, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थों के सम्बन्ध में इस प्रकार की बात करना उचित नहीं, यह इसलिए कि एक अतीन्द्रियपदार्थविषयक किसी मान्यता का समर्थन (अथवा खण्डन) यदि दूसरे प्रमाण (अर्थात् वेदेतर प्रमाण) कर सकें तो वह पदार्थ अतीन्द्रिय ही नहीं । १. क का पाठ : "षेयस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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