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________________ १९२ शास्त्रवार्तासमुच्चय यह कहना भी उचित नहीं कि धर्म आदि का स्वरूपनिर्णय वृद्धपरंपरा से हो जाएगा, क्योंकि प्रस्तुत वादी की मान्यतानुसार तो यह परंपरा जड़ से ही कटी हुई है (अर्थात् वह मूलतः ही अज्ञानआश्रित है); दूसरे, एक साधारण प्रमाता के लिए यह संभव नहीं कि वह वेदों में वर्णित अतीन्द्रिय पदार्थों का स्वरूपनिश्चय कर सके । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब प्रस्तुत वादी सर्वज्ञ की संभावना में ही विश्वास नहीं करता तो वृद्धपरंपरा भी उसके मतानुसार एक अज्ञानी व्यक्तियों की परंपरा सिद्ध होगी । प्रामाण्यं रूपविषये संप्रदाये न युक्तिमत् । यथाऽनादिमदन्धानां तथाऽत्रापि निरूप्यताम् ॥६००॥ जिस प्रकार अनादि काल से चली आई अन्धों की परंपरा रूप से सम्बन्ध में प्रामाणिक ज्ञान नहीं प्राप्त करा सकती वही बात प्रस्तुत प्रसंग में भी समझी जानी चाहिए (अर्थात् अनादि काल से चली आई असर्वज्ञ व्यक्तियों की परंपरा अतीन्द्रिय पदार्थों के संबन्ध में प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त नहीं करा सकती)। न लौकिकपदार्थेन तत्पदार्थस्य तुल्यता । निश्चेतुं पार्यतेऽन्यत्र तद्विपर्यय दर्शनात् ॥६०१॥ फिर एक शब्द का जो अर्थ लोक में प्रचलित है क्या उसका वही अर्थ वेद में भी है यह निश्चय करना संभव नहीं, क्योंकि एक दूसरे प्रश्न को (अर्थात् नित्यता-अनित्यता के प्रश्न को) ध्यान में रखने पर हम पाते हैं कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार एक शब्द अपने लोकप्रचलित रूप में जिस स्वभाववाला है उससे विपरीत स्वभाववाला होकर वह वेद में पाया जाता है । नित्यत्वापौरुषेयत्वाद्यस्ति किञ्चिदलौकिकम् । तत्रान्यत्राप्यतः शङ्का विदुषो न निवर्तते ॥६०२॥ क्योंकि प्रस्तुतवादी के मतानुसार वैदिक शब्दों में नित्यता, अपौरुषेयता आदि अलौकिक विशेताएँ वर्तमान हैं इसलिए एक विद्वान् को यह शंका बनी ही रहती है कि इन वैदिक शब्दों में कोई दूसरी अलौकिक विशेषताएँ भी कहीं न हों । १. क का पाठ यभावतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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