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________________ १७६ शास्त्रवार्तासमुच्चय सिद्ध होता है । इस पूरी वस्तुस्थिति पर विचार किया जाना चाहिए । अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥५५०॥ कुछ दूसरे वादियों की व्याख्या है कि शास्त्रों में सत्ता-अद्वैत के सिद्धान्त का उपदेश इसलिए दिया गया है कि श्रोताओं के मन में सब प्राणियों के प्रति समता की भावना उत्पन्न हो—न कि इसलिए कि सचमुच ही जगत् में कोई एकमात्र पदार्थ ही सत्ताशील है । टिप्पणी—प्रस्तुत तथा आगामी कारिकाओं में हरिभद्र बतलाते हैं कि क्या अर्थ पहनाए जाने पर अद्वैतवाद भी एक स्वीकार करने योग्य सिद्धान्त बन जाता है। न चैतत् बाध्यते युक्त्या सच्छास्त्रादिव्यवस्थितेः । संसारमोक्षभावाच्च तदर्थं यत्नसिद्धितः ॥५५१॥ उक्त वादियों का ऐसा कहना भी युक्तिविरुद्ध नहीं क्योंकि उनका कथन स्वीकार करने पर उत्तम शास्त्र ग्रंथों की प्रामाणिकता सिद्ध बनी रहती है, संसार तथा मोक्ष की संभावना सिद्ध बनी रहती है, मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न की संभावना सिद्ध बनी रहती है ।। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि अद्वैतवाद का सिद्धान्त तात्त्विक रूप से (अर्थात् शाब्दिक रूप से) स्वीकार करने पर प्रस्तुत तीनों बातें असंभव बनी रहती है। अन्यथा तत्त्वतोऽद्वैते हन्त ! संसार-मोक्षयोः ।। सर्वानुष्ठानवैयर्थ्यमनिष्टं सम्प्रसज्यते ॥५५२॥ अन्यथा तो संसार तथा मोक्ष वस्तुतः एक ठहरेंगे, और उस दशा में हम न चाहते हुए भी यह मानने के लिए बाध्य होंगे कि मोक्षप्राप्ति के लिए किया गया सब क्रियाकलाप एक व्यर्थ का क्रियाकलाप है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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