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________________ १६७ सातवाँ स्तबक पाया जाता है, जैसे कर्क (=एक प्रकार का घोड़ा) ऊँट से। निवर्तते च पर्यायो न तु द्रव्यं ततो न सः । अभिन्नो द्रव्यतोऽभेदेऽनिवृत्तिस्तत्स्वरूपवत् ॥५२२॥ पर्याय का नाश होता है लेकिन द्रव्य का नहीं और इससे यह सिद्ध हुआ कि पर्याय द्रव्य से अभिन्न नहीं । यदि पर्याय द्रव्य से सचमुच अभिन्न है तो उसे उसी प्रकार अविनाशी होना चाहिए जैसे द्रव्य होता है। टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में 'अनिवृत्तिः' के स्थान पर 'निवृत्तिः' यह पाठान्तर भी यशोविजयजी ने स्वीकार किया है; तब संबंधित कारिकाभाग का अनुवाद होगा : "यदि पर्याय द्रव्य से सचमुच अभिन्न है तो द्रव्य को उसी प्रकार विनाशी होना चाहिए जैसे पर्याय होता है ।" प्रतिक्षिप्तं च यद् भेदाभेदपक्षोऽन्य एव हि । भेदाभेदविकल्पाभ्यां हन्त ! जात्यन्तरात्मकः ॥५२३॥ हमारे उक्त प्रतिद्वन्द्वियों की बात का खंडन इसलिए हो गया कि केवल भेद तथा केवल अभेद इन दो धर्मों को वस्तुओं का स्वरूप मानने के सिद्धान्त की तुलना में 'भेद तथा अभेद दोनों का साथ रहना' इस एक धर्म को वस्तुओं का स्वरूप मानने का सिद्धान्त कुछ विलक्षण ही है । जात्यन्तरात्मकं चैनं दोषास्ते समियुः कथम् । भेदाभेदे च येऽत्यन्तं जातिभिन्ने व्यवस्थिताः ॥५२४॥ 'भेद तथा अभेद दोनों का साथ रहना' इस एक धर्म को वस्तुओं का स्वरूप मानने वाले विलक्षण सिद्धान्त पर वे दोष कैसे लागू हो सकते हैं जो . केवल भेद तथा केवल अभेद इन दो धर्मों में से-जो एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है-किसी एक को वस्तुओं का स्वरूप मानने वाले सिद्धान्त पर लागू होते हैं? किञ्चिन्निवर्ततेऽवश्यं तस्याप्यन्यत् तथा न यत् । अतस्तद्भेद एवात्र निवृत्त्याद्यन्यथा कथम् ॥५२५॥ कहा जा सकता है : "एक वस्तु का कुछ भाग नष्ट अवश्य होता है और कुछ भाग नष्ट नहीं भी होता है; अतः मानना चाहिए कि यह वस्तु पहले की अपेक्षा भिन्न ही हो जाती है। वरना इस वस्तु के नाश आदि की (अर्थात् उसके नाश, उत्पत्ति आदि की) बात संभव ही कैसे होगी?" इस पर हमारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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