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________________ सातवाँ स्तबक १६५ दो धर्मों के आधार पर स्थायी तथा परिवर्तनशील दोनों कहा जा रहा है वे धर्म भी अपने में रहने वाले किन्हीं दूसरे दो धर्मों के आधार पर स्थायी तथा परिवर्तनशील कहे जाने चाहिये, फिर उक्त वस्तु के उक्त धर्मों में रहने वाले ये धर्म अपने में रहने वाले किन्हीं धर्मों के आधार पर स्थायी तथा परिवर्तनशील दोनों कहे जाने चाहिये; और इसी प्रकार यह क्रम अनन्तकाल तक चलता रहेगा। ऐसी सभी आपत्तियों के उत्तर में हरिभद्र का यही कहना है कि स्थायित्व तथा परिवर्तन का प्रत्येक वस्तु में अनिवार्यतः साथ साथ रहना एक अनुभवसिद्ध बात है जबकि अकेले स्थायित्व अथवा अकेले परिवर्तन का किसी भी वस्तु में रहना एक प्रमाणसिद्ध बात नहीं । नाभेदो भेदरहितो भेदो वाऽभेदवर्जितः ।। केवलोऽस्ति यतस्तेन कुतस्तत्र विकल्पनम् ॥५१५॥ भेद से रहित केवल अभेद कहीं नहीं पाया जाता और न ही अभेद से रहित केवल भेद कहीं भी पाया जाता है; ऐसी दशा में (केवल भेद अथवा केवल अभेद की सत्ता संभव मानते हुए) हमारे सिद्धान्त पर (जिसके अनुसार भेद एवं अभेद अनिवार्यतः साथ रहते हैं) आपत्तियाँ उठाना कहाँ तक उचित है? येनाकारेण भेदः किं मासावेव वा द्वयम् । असत्त्वात् केवलस्येह सतश्च कथितत्वतः ॥५१६॥ उदाहरण के लिए, हमसे पूछा जाता है कि एक वस्तु जिस आकार से भेदरूपवाली है उस आकार से क्या वह भेदरूपवाली ही है अथवा भेद तथा अभेद दोनों रूपों वाली । लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि कोई वस्तु केवल भेदरूपवाली अथवा केवल अभेदरूप वाली तो होती ही नहीं, और यह वस्तु जैसी है वह हम कह ही चुके (अर्थात् यह वस्तु भेद तथा अभेद दोनों रूपों वाली है वह हम कह ही चुके) ।। यतश्च तत् प्रमाणेन गम्यते ह्यभयात्मकम् । अतोऽपि जातिमात्रं तदनवस्थादिकल्पनम् ॥५१७॥ दूसरे, क्योंकि प्रत्येक वस्तु का भेद तथा अभेद दोनों रूपों वाली होना एक प्रमाणसिद्ध बात है इसलिए भी एक वस्तु को भेद तथा अभेद दोनों रूपों वाली मानने के सिद्धान्त में अनवस्था आदि दोष दिखाना एक थोथे प्रकार का दोषप्रदर्शन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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