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________________ १८ जा सकता है कि कालवाद, स्वभाववाद तथा नियतिवाद (जिनके परस्पर मतभेद गौण कोटि के हैं) हमारे दैनंदिन जीवन की उन घटनाओं को आधार बनाकर चलते हैं जिनमें हम किसी प्रत्याशित कार्यकारणसंबंध-विशेष को सचमुच उपस्थित पाते हैं, जबकि कर्मवाद हमारे दैनंदिन जीवन की उन घटनाओं को आधार बनाकर चलता है जिन में हम किसी प्रत्याशित कार्यकारणसंबंधविशेष को अनुपस्थित पाते हैं। देखना कठिन नहीं कि एक पुनर्जन्मवादी दार्शनिक के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह किसी-न-किसी सीमा तक कर्मवाद को समर्थन प्रदान करे, लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्राचीन भारत के अधिकांश दार्शनिक सम्प्रदायों ने-ठीक ठीक कहा जाए तो प्राचीन भारत के उन दार्शनिक संप्रदायों ने जिन्हें कार्यकारणसम्बन्ध की वास्तविकता में विश्वास है-वस्तुस्थिति के उस पहलू के साथ भी न्याय करनेकी यथासम्भव चेष्टा की है जिन की ओर अंगुलिनिर्देश कालवाद, स्वभाववाद तथा नियतिवाद कर रहे हैं । इन्हीं दार्शनिक सम्प्रदायों के मत का प्रतिनिधित्व हरिभद्र ने यह कहकर किया है कि जगत के घटना-प्रवाह का नियमन काल, स्वभाव, नियति तथा कर्म अकेले अकेले नहीं करते, अपितु चारों मिलकर करते हैं । ३. न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों का ईश्वरवाद : प्राचीन भारत में ईश्वरवाद का समर्थन सबसे अधिक विस्तार के साथ तथा सबसे अधिक तार्किकता के साथ करनेवाला सम्प्रदाय न्याय-वैशेषिक था और इसलिए हम हरिभद्र की एतद्विषयक चर्चा का सम्बन्ध इस सम्प्रदाय के साथ जोड़ रहे हैं । वरना वस्तुस्थिति यह है कि अपनी इस चर्चा में हरिभद्र ने उन ईश्वर-समर्थक युक्तियों की कतई उपेक्षा की है, जिनका सम्बन्ध सत्ताशास्त्रीय प्रश्नों से है और जिनको उपस्थित करने में न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों ने सर्वाधिक कौशल का प्रदर्शन किया है । अपने स्थान पर हरिभद्र की प्रस्तुत चर्चा का विषय वे ईश्वर-समर्थक युक्तियाँ हैं जिनका सम्बन्ध आचारशास्त्रीय प्रश्नों से है और जिनको न्याय-वैशेषिक साहित्य में अपेक्षाकृत गौण स्थान प्राप्त है। ईश्वरवादी दार्शनिक से हरिभद्र का सीधा प्रश्न यह है कि एक प्राणी कोई भलाबुरा काम करने में स्वतंत्र है या नहीं ? उनका कहना है कि यदि एक प्राणी किन्हीं भलेबुरे कामों को करने में स्वतंत्र है तो ईश्वर को इन कामों का प्रेरक क्यों माना जाए (जैसे कि एक ईश्वरवादी दार्शनिक मानता है) और यदि एक प्राणी किन्हीं भले-बुरे कामों को करने में स्वतंत्र नहीं तो इस प्राणी को इन कामों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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