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________________ सातवाँ स्तबक १५५ त आहुर्मुकुटोत्पादो न घटानाशधर्मकः । स्वर्णान्न वाऽन्य एवेति न विरुद्धं मिथस्त्रयम् ॥४८५॥ इस सबके उत्तर में प्रस्तुतवादी का कहना है कि (उस पूर्वोक्त दृष्टान्त में) मुकुट की उत्पत्ति घड़े के नाश के स्वभाववाली न हो ऐसी बात नहीं और वह सोने से सर्वथा भिन्न कुछ हो ऐसी बात नहीं, अत: उपरोक्त तीन धर्मों का (अर्थात् उत्पत्ति, विनाश, स्थिरता का) एक साथ रहना परस्परविरोधी नहीं । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि एक ही घटना का 'घड़े का नाश,' 'मुकुट की उत्पत्ति' तथा 'सोने का ज्यों का त्यों बने रहना' इन तीन रूपों वाली होना एक प्रत्यक्षसिद्ध बात हैं । न चोत्पादव्ययौ न स्तो ध्रौव्यवत् तद्धिया गतेः । नास्तित्वे तु तयोध्रौव्यं तत्त्वतोऽस्तीति न प्रमा ॥४८६॥ उत्पत्ति तथा विनाश हुआ न करते हों ऐसी बात नहीं, क्योंकि हमें स्थिरता के समान ही उत्पत्ति तथा विनाश का भी ज्ञान होता है; बात तो यह है कि यदि उत्पत्ति तथा विनाश हुआ न करते होते तो 'स्थिरता वस्तुतः होती है' यह ज्ञान भी प्रामाणिक न होता । . टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र एक ऐसे विरोधी को संबोधित कर रहे हैं जो स्थिरताको तो वास्तविक मानता है लेकिन उत्पत्ति तथा विनाश को अवास्तविक । और उनका मन्तव्य यह है कि हमें स्थिरता का ज्ञान उत्पत्ति तथा विनाश की पृष्ठभूमि में ही हुआ करता है । न नास्ति ध्रौव्यमप्येवमविगानेन तद्गतेः । अस्याश्च भ्रान्ततायां न जगत्यभ्रान्ततागतिः ॥४८७॥ स्थिरता नहीं हुआ करती ऐसी बात भी नहीं, क्योंकि हमें स्थिरता का ज्ञान निर्दोष रूप से होता है; और यदि स्थिरताविषयक हमारा यह ज्ञान भ्रान्त है तो जगत् में अभ्रान्त ज्ञान जैसी कोई वस्तु नहीं । टिप्पणी—प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र एक ऐसे वादी को संबोधित कर रहे हैं जो उत्पत्ति तथा विनाश को तो वास्तविक मानता है लेकिन स्थिरता को अवास्तविक । और उनका मन्तव्य है कि स्थिरता के संबंध में होनेवाली हमारी प्रतीति उतनी ही अभ्रान्त है जितनी अभ्रान्त हमारी कोई भी प्रतीति हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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