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________________ छठा स्तबक १४९ (६) शून्यवाद खंडन । ब्रुवते शून्यमन्ये तु सर्वमेव विचक्षणाः ।। न नित्यं नाप्यनित्यं यद् वस्तु युक्त्योपपद्यते ॥४६७॥ कुछ दूसरे बुद्धिमान् वादियों का कहना है कि जगत् में सब कुछ शून्यरूप है और वह इसलिए कि जगत् की किसी भी वस्तु को न तो नित्य कहना युक्तिसंगत लगता है न अनित्य कहना । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र शून्यवाद का खंडन प्रारम्भ करते हैं। नित्यमर्थक्रियाऽभावात् क्रमाक्रमविरोधतः । अनित्यमपि चोत्पादव्ययाभावान्न जातुचित् ॥४६८॥ एक वस्तु नित्य तो इसलिए नहीं कि एक नित्य वस्तु में अर्थक्रिया संभव नहीं-न क्रमिक रूप से न एककालिक रूप से; और वह अनित्य इसलिए नहीं कि एक अनित्य वस्तु का न उत्पन्न होना संभव है न नष्ट होना । टिप्पणीदेखा जा सकता है कि शून्यवादी को कार्यकारणभाव की वास्तविकता में ही विश्वास नहीं । इसके विपरीत, न्यायवैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध तथा जैन तार्किकों के परस्पर विरोध, इस प्रश्न को लेकर हैं कि वस्तुतत्त्व को किस स्वभाववाला माना जाए ताकि वस्तुओं के बीच कार्यकारणभाव संभव बना रहे । एक नित्य वस्तु को अर्थक्रिया में असमर्थ किस आधार पर घोषित किया जाता है यह एक पिछली टिप्पणी में अभी दिखाया जा चुका; एक अनित्य वस्तु को उत्पत्तिविनाश में असमर्थ घोषित करने के लिए भी आधार पाए जा सकते हैं । उदाहरण के लिए, कहा जा सकता है, "एक अनित्य वस्तु अपनी उत्पत्ति आप नहीं कर सकती क्योंकि वैसा होना असंभव है; दूसरी ओर एक अनित्य वस्तु की उत्पत्ति कोई दूसरी वस्तु भी नहीं कर सकती क्योंकि यह अनित्य वस्तु यदि अपने जन्म से पूर्व इस दूसरी वस्तु में वर्तमान है तब तो उसके उत्पन्न किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता और यदि वह वहाँ वर्तमान नहीं तो उसका उत्पन्न किया जाना संभव नहीं " उत्पादव्ययबुद्धिश्च भ्रान्ताऽऽनन्दादिकारणम् । कुमार्याः स्वप्नवज्ज्ञेया पुत्रजन्मादिबुद्धिवत् ॥४१९॥ एक वस्तु को उत्पन्न अथवा नष्ट हुई मानना एक भ्रान्त समझ है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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