SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ शास्त्रवार्तासमुच्चय और जो प्रस्तुत वादी ने यह मान्यता स्थिर की है कि एक क्षणिक वस्तु (ही) अर्थक्रिया समर्थ हुआ करती है उसे अयुक्तिसंगत समझना चाहिएक्योंकि एक क्षणिक वस्तु अपनी उत्पत्ति के तत्काल बाद नष्ट हो जाती है । टिप्पणी-क्षणिकवाद की समर्थक जिन चार युक्तियों का खंडन हरिभद्र ने प्रस्तुत स्तबक में किया है उनमें से दूसरी की चर्चा का प्रारंभ प्रस्तुत कारिका में होता है। 'अर्थक्रियासमर्थ' शब्द का मोटा अर्थ है 'किसी काम आ सकने योग्य' लेकिन दार्शनिक चर्चाओं में इसका अर्थ किया जाता है 'किसी कारणसामग्री का अंग बन सकने योग्य' । स्पष्ट ही कार्यकारणभाव की वास्तविकता में विश्वास रखने वाला एक दार्शनिक ही अर्थक्रियासामर्थ्य को वस्तु-तत्त्व की कसौटी के रूप में प्रस्तुत करेगा, और वे बौद्ध तार्किक जिन्होंने कदाचित् सबसे पहले अर्थक्रिया सामर्थ्य को वस्तु-तत्त्व की कसौटी के रूप में प्रस्तुत किया था कार्यकारणभाव की वास्तविकता में विश्वास रखने वाले सचमुच थे । जहाँ तक इतनी बात का संबंध था इन बौद्धों का तत्त्वतः समर्थन उन सभी दार्शनिकों ने किया जो स्वयं कार्यकारणभाव की वास्तविकता में विश्वास रखते थे, लेकिन जब बौद्धों ने यह कहा कि एक क्षणिक वस्तु ही अर्थक्रियासमर्थ हो सकती है तब दूसरे दार्शनिकों का उनके साथ चलना असंभव हो गया। उदाहरण के लिए, हरिभद्र के अपने मतानुसार जगत् की वस्तुओं का स्वाभाविक धर्म क्षणिकता नहीं क्षणिकतासंवलित नित्यता है, और ऐसी दशा में उनके लिए इस मान्यता का विरोध करना अनिवार्य हो जाता है कि अर्थक्रिया-सामर्थ्य की (अतएव वास्तविकता की) आवश्यक शर्त क्षणिकता है। अर्थक्रिया यतोऽसौ वा तदन्या' वा द्वयी गतिः । तत्त्वे न तत्र सामर्थ्यमन्यतस्तत्समुद्भवात् ॥४३८॥ एक क्षणिक वस्तु जिस अर्थक्रिया को जन्म देने में समर्थ कही जा रही है उसके संबंध में हमारा प्रश्न है कि वह यह वस्तु ही है या अन्य कुछ। यदि वह अर्थक्रिया यह वस्तु ही है तब तो उसको जन्म देने में यह वस्तु समर्थ नहीं हो सकती, क्योंकि तब तो उसका जन्म अन्य किसी कारण से (अर्थात् प्रस्तुत वस्तु के कारण से) हुआ होगा । न स्वसंधारणे न्यायात् जन्मानन्तरनाशतः । न च नाशेऽपि सद्युक्त्या तद्धेतोस्तत्समुद्भवात् ॥४३९॥ १. ख का पाठ : तदन्यो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy