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________________ पाँचवाँ स्तबक १२७ टिप्पणी-यहाँ 'ग्राह्य' का अर्थ है ज्ञानविषय और 'ग्राहक' का अर्थ ज्ञान । 'असत्यपि च या बाह्ये ग्राह्यग्राहकलक्षणा' के स्थान पर यशोविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठ है 'असत्यपि च या बाह्ये ग्राह्ये ग्राहकलक्षणे' उनके अनुसार कारिका का अनुवाद होगा "ग्राह्यरूप बाह्य पदार्थों के तथा ग्राहकरूप ज्ञान के अभाव में भी अनुभूत होने वाले ग्राह्यग्राहकभाव को ही हम...." अस्त्वेतत् किन्तु तद्धेतुभिन्नहेत्वन्तरोद्भवा । इयं स्यात् तिमिराभावे न हीन्दुद्वयदर्शनम् ॥४१०॥ यह सब कुछ ऐसा ही भले क्यों नहीं, लेकिन एक भ्रान्ति का कारण ज्ञानमात्र के कारण से भिन्न ही होना चाहिए; सचमुच, तिमिर नामक नेत्ररोग के अभाव में किसी व्यक्ति को दो चन्द्रमा नहीं दिखलाई पड़ते । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि यदि ज्ञानमात्र का कारण भ्रान्ति का कारण है तो ज्ञानमात्र को भ्रान्त ज्ञान होना चाहिए । न चासदेव तद्धेतुर्बोधमात्रं न चापि तत् । सदैव' क्लिष्टतापत्तेरिति मुक्तिर्न युज्यते ॥४११॥ भ्रान्ति का कारण कोई अवास्तविक सत्ता नहीं हो सकती और न ही यह कारण ज्ञानमात्र हो सकता है क्योंकि ऐसा मानने पर (अर्थात् किसी अवास्तविक सत्ता को अथवा ज्ञानमात्र को भ्रान्ति का कारण मानने पर) मानना पड़ेगा कि विज्ञान सदैव दूषित रहा करता है और इस दशा में मोक्ष की (अर्थात विज्ञान को दोषमुक्ति की) संभावना अयुक्तिसंगत सिद्ध होगी । मुक्त्यभावे च सर्वैव ननु चिन्ता निरर्थिका । भावेऽपि सर्वदा तस्याः सम्यगेतत् विचिन्त्यताम् ॥४१२॥ यदि मोक्ष एक असंभव घटना है तो सब दार्शनिक चर्चा व्यर्थ सिद्ध होती है, और यदि मोक्ष एक सदा वर्तमान अवस्था है तो भी उक्त चर्चा व्यर्थ सिद्ध होती है । प्रस्तुत वादी को इस परिस्थिति पर भली भाँति विचार करना चाहिए । १. क का पाठ : तदैव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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