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________________ ११२ शास्त्रवार्तासमुच्चय तथाऽपि तु तयोरेव तत्स्वभावत्वकल्पनम् । अन्यत्रापि समानत्वात् केवलं ध्यान्ध्यसूचकम् ॥३५९॥ एक कार्यविशेष को जन्म देने की सामर्थ्य से शून्य वस्तु तो जैसी इस कार्य को वैसी अन्य किसी कार्य को (अर्थात् यह वस्तु जैसे अन्य किसी कार्य को जन्म नहीं देती वैसे ही वह प्रस्तुत कार्यविशेष को भी नहीं दे सकती) । इसी प्रकार प्रस्तुतवादी के मतानुसार कारण कार्य को जन्म देते समय किसी प्रकार का व्यापार नहीं करता और न ही अपने जन्म के पूर्व सर्वथा असत्ताशील होने के कारण कार्य कारण पर कैसे निर्भर रहता है । इतने पर भी यदि प्रस्तुत वादी को वस्तुविशेषों के बीच कार्यकारणभाव की कल्पना करना संभव समझे तो यह उसकी मनमानी का (ख के पाठानुसार : उसके अपने अज्ञान का) सूचक होगा, क्योंकि उसकी मान्यतानुसार तो किन्हीं भी दो वस्तुओं के बीच कार्यकारणभाव की कल्पना की जानी संभव होनी चाहिए । - टिप्पणी-प्रस्तुत कारिकाओं में हरिभद्र अपनी पूर्वोक्त कार्यकारणभाव संबंधी चर्चा का अन्तिम उपसंहार कर रहे हैं । देखा जा सकता है कि हरिभद्र की मान्यतानुसार 'एक कारण एक कार्यविशेष को जन्म देने की क्षमता वाला है' यह कहने का अर्थ यह है कि यह कार्य इस कारण में अपने जन्म से पूर्व भी कैसे ही न कैसे विद्यमान है; इसी प्रकार उनकी मान्यतानुसार 'एक कारणविशेष एक कार्यविशेष को जन्म देता है' यह कहने का अर्थ है कि यह कारण इस कार्य को जन्म देने के बाद भी इस कार्य में कैसे ही न कैसे विद्यमान है। और क्योंकि क्षणिकवादी न कारण में कार्य का अस्तित्व संभव मानता है, न कार्य में कारण का इसलिए हरिभद्र की समझ है कि 'जनक (=कारण)' तथा 'जन्य' (=कार्य)' शब्दों के अर्थ ही क्षणिकवाद का खंडन कर रहे हैं । (७) बुद्ध-वचनों की सहायता से क्षणिकवाद का खंडन किञ्चन्यात् क्षणिकत्वे व आर्षोऽर्थोऽपि विरुध्यते । ‘विरोधापादनं चास्य नाल्पस्य तमसः फलम् ॥३६०॥ दूसरे, क्षणिकवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर प्रस्तुत वादी (अपने ही अभीष्ट) शास्त्रवचनों के विरोध में आ रहा होता है, जबकि शास्त्रवचनों के विरोध में आना कम अज्ञान का फल नहीं । १. ख का पाठ : स्वाध्य' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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